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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा।
अगुणिस्स नस्थि मोक्खो नस्थि अमोक्खस्स निव्याणं॥ ९ अर्थात्- दर्शन (सम्यक्त्व) के बिना ज्ञान नहीं होता और
ज्ञान के बिना चारित्र के गुण नहीं होते। चारित्र गुण रहित का कर्म से छुटकारा नहीं होता।
प्रमाणमीमांसा के रचयिता श्री हेमचन्द्राचार्य ने 'ज्ञान/क्रियाभ्यां मोक्षः' कहकर ज्ञान और क्रिया को मुक्ति का उपाय बताया है। यहाँ ज्ञान में दर्शन का भी समावेश समझना चाहिये, क्योंकि दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है। चारित्र में संवर और निर्जरा का समावेश है । निर्जरा द्वारा आत्मा पूर्वकृत कर्मों को क्षय करता है और संवर द्वारा आने वाले नये कर्मों को रोक देता है । इस प्रकार नवीन कर्मों के रुक जाने से और धीरे २ पुराने कर्मों के क्षय हो जाने पर जीव सर्वथा कर्म से मुक्त हो जाता है और परमात्म भाव को प्राप्त करता है। कर्म से मुक्त शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त आत्मा ही जैनदर्शन में ईश्वर माना गया है। | कर्म के आठ भेद-(१) ज्ञानावरणीय कर्म (२) दर्शनावरणीय कर्म (३) वेदनीय कर्म (४) मोहनीय कर्म (५) आयु कर्म (६) नाम कर्म (७) गोत्र कर्म और (E) अन्तराय कर्म। (१) ज्ञानावरणीय कर्म- वस्तु के विशेष अवबोध को ज्ञान कहते हैं। आत्मा के ज्ञानगुण को आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कहलाता है। जिस प्रकार आँख पर कपड़े की पट्टी लपेटने से वस्तुओं के देखने में रुकावट पड़ती है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के प्रभाव से प्रात्मा को पदार्थ-ज्ञान करने में रुकावट पड़ती है। यहाँ यह जान लेना चाहिए कि ज्ञानावरणीय कर्म से ज्ञान आच्छादित होता है, पर यह कर्म आत्मा को सर्वथा ज्ञान-शून्य (जड) नहीं बना देता । जैसे सघन बादलों