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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
उसके शरीर में चिपक जाती है। उसी प्रकार राग द्वेष परिणामों से परिणत जीव भी आत्मा से घिरे हुए क्षेत्र में व्यास कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । स्थानांग मूत्र में भी बताया है कि दो स्थानों से पाप कर्म बंधते हैं- राग और द्वेष । राग के दो भेद हैं-माया और लोभ। द्वेष के दो भेद हैं- क्रोध और मान (ठा० २ उ० २) । इससे भी यह सिद्ध होता है कि राग द्वेष से कर्म बन्ध होता है और चूंकि ये कषाय रूप हैं इसलिये कपाय ही कर्मवन्ध के कारण हैं। इस प्रकार राग द्वेष की स्निग्धता से ही कर्म का बन्ध होता है। इसके तीव्र होने से उत्कट कों का वन्ध होता है। राग द्वेष की कमी के साथ अज्ञानता घटती जाती है और ज्ञान विकास पाता जाता है जिससे कर्म बन्ध भी तीव्र नहीं होता। ___ अन्य दर्शनों में कर्मबन्ध के जो हेतु बताये हैं उनमें शब्दभेद होने पर भी वास्तव में कोई अर्थभेद नहीं है। नैयायिक वैशेषिक दर्शन में मिथ्याज्ञान को, योग दर्शन में प्रकृति पुरुष के अभेद ज्ञान को और वेदान्त में अविद्या को कर्मबन्ध का कारण बतलाया गया है। ये सभी जैन दर्शन के बन्ध-हेतु मिथ्यात्व से भिन्न नहीं हैं।
कर्म से छुटकारा और उसके उपाय-- उक्त प्रकार के क्षीरनीर की तरह लोलीभूत हुए कर्म भी अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं और राम द्वेष की परिणति से नित्य नये कर्म बंधते रहते हैं। इस प्रकार संसारका क्रम चलता रहता है। पर इससे यह नहीं समझना चाहिये कि आत्मा सर्वथा कर्म से मुक्त हो ही नहीं सकता। कर्मसन्तति अनादि है पर सब जीवों के लिये अनन्त नहीं है । भगवती शतक ६ उ० ३ में बताया है कि जीवों के कर्म का उपचय सादि सान्त, अनादि सान्त और