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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १८७ (२) क्षेत्र-स्वग्राम और परग्राम से भिक्षा लेने का अभिग्रह करना। (३) काल-- प्रातःकाल या मध्याह्न में भिक्षाचर्या करना। (४) भाव- गाना, हँसना आदि क्रियाओं में प्रवृत्त पुरुषों से भिक्षा लेने का अभिग्रह करना। (५) उत्तिप्त चरक-- अपने प्रयोजन के लिए गृहस्थी के द्वारा भोजन के पात्र से बाहर निकाले हुए आहार की गवेपणा करना। (६) निक्षिप्त चरक- भोजन के पात्र से बाहर न निकाले हुए
आहार की गवेषणा करना। (७) उत्तिप्तनिक्षिप्त चरक- भोजन के पात्र से उद्धृत और अनुद्धृत दोनों प्रकार के आहार की गवेषणा करना। (८) निक्षिप्त उत्क्षिप्त चरक- पहले भोजन पात्र में डाले हुए और फिर अपने लिए बाहर निकाले हुए आहार आदि की गवेषणा करना। (8) वहिज्जमाण चरए (वय॑मान चरक)- गृहस्थी के लिए थाली में परोसे हुए आहार की गवेषणा करना । (१०) साहरिजमाण चरिए-कुरा (एक तरह का धान्य) आदि जो ठंडा करने के लिए थाली आदि में डाल कर वापिस भोजन पात्र में डाल दिया गया हो, ऐसे आहार की गवेषणा करना। (११) उवणीअ चरए (उपनीत चरक)- दूसरे साधु द्वारा अन्य साधु के लिए लाये गये आहार की गवेषणा करना। (१२) अवणीअ चरए (अपनीत चरक)- पकाने के पात्र में से निकाल कर दूसरी जगह रखे हुए पदार्थ की गवेषणा करना। (१३) उवणीपावणीअ चरए (उपनीतापनीत चरक)- उपरोक्त दोनों प्रकार के आहार की गवेषणा करना, अथवा दाता द्वारा उस पदार्थ के गुण और अवगुण सुन कर फिर ग्रहण करना अर्थात् एक ही पदार्थ की एक गुण से तो प्रशंसा और दूसरे