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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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कह दिया । मन्त्री ने राजा से कहा कि आप चिन्ता न करें मैं
आपके समीहित कार्य को पूर्ण कर दूंगा। ऐसा कह कर मन्त्री ने 'एक दूतीको भेज कर उस जुलाहे की स्त्री वनमाला को बुलवाया
और उसे राजा के पास भेज दिया। राजा ने उसे अपने अन्तःपुर में रख लिया और उसके साथ संसार के सुखों का अनुभव करता हुआ आनन्दपूर्वक रहने लगा।
दूसरे दिन प्रातः काल जब वीरक जुलाहे ने अपनी स्त्री वनमाला को घर में न पाया तो वह अति चिन्तित हुआ। शोक तथा चिन्ता के कारण वह भ्रान्तचित्त (पागल) हो गया और हा वनमाले ! हावनमाले! कहता हुआ शहर में इधर उधर घूमने लगा। एक दिन वनमाला के साथ बैठा हुआ राजा राजमहल के नीचे से जाते हुए और इस प्रकार प्रलाप करते हुए उस जुलाहे को देख कर विचार करने लगा और वनमाला से कहने लगा कि अहो ! हम दोनों ने इहलोक और परलोक दोनों लोकों में निन्दित अतीव निर्लज्ज कार्य किया है। ऐसानीच कार्य करने से हम लोगों को नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा। इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए उन दोनों पर अकस्मात् आकाश से बिजली गिर पड़ी जिससे वे दोनों मृत्यु को प्राप्त हो गये । परस्पर प्रेम के कारण और शुभ ध्यान के कारण वे दोनों मर कर हरिवर्ष क्षेत्र के अन्दर युगल रूप से हरि और हरिणी नाम के युगलिये हुए और आनन्दपूर्वक सुख भोगते हुए रहने लगे। इधर वीरक जुलाहे को जब उनकी मृत्यु के समाचार ज्ञात हुए तब पागलपन छोड़ वह अज्ञान तप करने लगा। उस अज्ञान तप के कारण मर कर वह सौधर्म देवलोक में किल्विषिक देव हो गया। फिर उसने अवधिज्ञान से देखा कि मेरे पूर्व भव के वैरी राजा और वनमाला दोनों हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिया रूप से उत्पन्न हुए हैं।