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भी जैन सिद्धान्त पोल संग्रह
मोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीव के भेद से दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है। इनका स्वरूप इसके प्रथम भाग बोल नं० ७७ में दिया जा चुका है।
शंका- सम्यक्त्वमोहनीय दो जिन प्रणीत तत्त्वों पर श्रद्धानात्मक सम्यक्त्व रूप से भोगा जाता है। यह दर्शन का घात तो नहीं करता, फिर इसे दर्शनमोहनीय के भेदों में क्यों गिना जाता है ? ___समाधान-- जैसे चश्मा आँखों का आवारक होने पर भी देखने में रुकावट नहीं डालता। उसी प्रकार शुद्ध दलिक रूप होने से सम्यक्त्वमोहनीय भी तत्त्वार्थ श्रद्धान में रुकावट नहीं करता परन्तु चश्मे की तरह वह आवरण रूप तो है ही। इसके सिवाय सम्यक्त्वमोहनीय में अतिवारों का सम्भव है । औपशमिक
और क्षायिक दर्शन (सम्यक्त्व) के लिए यह मोह रूप भी है। इसीलिये यह दर्शनमोहनीय के भेदों में दिया गया है। । चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं- कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से प्रत्येक चार चार तरह का है। कषाय के ये कुल १६ भेद हुए । इनका स्वरूप इसके प्रथम भाग के बोल नं० १५६ से १६२ तक दिया गया है। हास्य, रति, परति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुसंक वेद ये नौ भेद नोकषायमोहनीय के हैं। इनका स्वरूप नवें बोल में दिया जायगा । इस प्रकार मोहनीय कर्म के कुल मिलाकर २८ भेद होते हैं। मोहनीय की स्थिति जयन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सचर कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। __मोहनीय कर्म छःप्रकार से बंधता है- तीच क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव्र दर्शनमोहनीय और तीव्र चारित्र