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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
निमित्त पाकर जीव को निद्रा आती है। भैंस के दही आदि का भोजन भी निद्रा का कारण है। इसी प्रकार स्वाभाविक पुद्गल परिणाम, जैसे वर्षा काल में आकाश का बादलों से घिर जाना, वषो की झड़ी लगना आदि भी निद्रा के सहायक हैं। इस प्रकार पुद्गल, पुद्गलपरिणाम और स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम का निमित्त पाकर जीव के निद्रा का उदय होता है और उसके दर्शनोपयोग का घात होता है, यह परतः अनुभाव हुआ । स्वतः अनुभाव इस प्रकार है । दर्शनावरणीय पुद्गलों के उदय से दर्शन शक्ति का उपघात होता है और जीव दर्शन योग्य वस्तु को देख नहीं पाता, देखने की इच्छा रखते हुए भी नहीं देख सकता, एक बार देख कर वापिस भूल जाता है। यहाँ तक कि उसकी दर्शनशक्ति आच्छादित हो जाती है अर्थात् दब जाती है। ( ३) वेदनीय-जो अनुकूल एवं प्रतिकूल विषयों से उत्पन्न सुख दुःख रूप से वेदन अथोत् अनुभव किया जाय वह वेदनीय कर्म कहलाता है। यों तो सभी कर्मों का वेदन होता है परन्तु साता असाता अर्थात् सुख दुःख का अनुभव कराने वाले कर्म विशेष में ही वेदनीय रूढ़ है, इसलिए इससे अन्य कर्मों का बोध नहीं होता । वेदनीय कर्म साता असाता के भेद से दो प्रकार का है। सुख का अनुभव कराने वाला कर्म सातावेदनीय कहलाता है और दुःख का अनुभव कराने वाला कर्म असातावेदनीय कहलाता है। यह कर्म मधुलिप्त तलवार की धार को चाटने के समान है। तलवार की धार पर लगे हुए शहद के स्वाद के समान सातावेदनीय है और धार से जीभ के कटने जैसा असातावेदनीय है । वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त की और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर अनुकम्पा की जाय, इन्हें
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