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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
होने का निश्चय होता है । इस प्रकार कर्मों की मूर्तता सिद्ध है। यदि कर्म अमूर्त माने जायँ तो वे आकाश जैसे होंगे। आकाश से जैसे उपघात और अनुग्रह नहीं होता, उसी प्रकार कर्म से भी उपघात और अनुग्रह न हो सकेगा। पर चूंकि कर्मों से होने चाला उपघात अनुग्रह प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इसलिये वे मूर्त ही हैं। कर्म की व्याख्या में यह बताया गया है कि कर्म और आत्मा इस प्रकार एक हो जाते हैं जिस प्रकार दूध और पानी तथा
और लोहfपंड | पर गोष्ठामाहिल नामक सातवें निह्नव "इस प्रकार नहीं मानते। उनके मतानुसार कर्म आत्मा के साथ Tana air-नीर की तरह एक रूप नहीं होते किन्तु सर्प की कञ्चुकी (कांची) की तरह जीव से स्पृष्ट रहते हैं। इस मत की मान्यता एवं इसका खण्डन इसके द्वितीय भाग के बोल नम्बर ५६१ निह्नव प्रकरण में दिया गया है ।
जीव और कर्म का सम्बन्ध - अब यह प्रश्न होता है कि जीव अमूर्त है और कर्म मूर्त हैं। उनका आपस में सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है- जैसे मूर्त घट का अमूर्त आकाश के साथ सम्बन्ध होता है अथवा अंगुली आदि द्रव्य का जैसे आकुंचन (संकुचित करना) आदि क्रिया के साथ सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव और कर्म का भी सम्बन्ध होता है। जीव और बाह्य शरीर का सम्बन्ध तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है । इस प्रकार अमूर्त जीव के साथ मूर्त कर्म का सम्बन्ध • होने में कोई भी बाधा नहीं है ।
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मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा पर प्रभाव - यह प्रश्न होता है कि आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त हैं। मूर्त वायु और अनि
जिस प्रकार अमूर्त आकाश पर कोई प्रभाव नहीं होता उसी प्रकार मूर्त कर्म का भी आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं होना चाहिये ।