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किरण
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प्रमाणनयतत्वालोकालंकार की समीक्षा
' इस ग्रन्थ में परीक्षामुख से भेद दिखलाने के लिये जो शब्द-परिवर्तन किया गया है उस से सूत्रों में कुछ काठिन्य आजाना स्वाभाविक है किन्तु सूत्रों के देखने से जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ता को काठिन्यप्रिय भी था जिससे स्थान स्थान पर शब्दाडम्बरता को भी खूब स्थान मिला है।
सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात् सहोत्पादाच ॥६४-३॥ (परीक्षामुख) .. सहचारिणोः परस्परस्वरूपत्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः, सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तेश्च, सहचरहेतोरपि प्रोक्तेषु नानुप्रवेशः ॥७६-३॥
प्र० न० तत्वा०। इन दोनों सूत्रों के देखने से मालूम पड़ सकता है कि परीक्षामुख के सूत्र में कितनी सरलता व लघुता पायी जाती है तथा प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार के सूत्र में कितनी कठिनता व शब्दाडम्बरता पायी जाती है। इस सूत्र पर विशेष विचार आगे किया जायगा।
उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिशानमूहः ॥११-३॥ इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च ॥१२-३॥ परोक्षामुख० । उपलम्भानुपलम्भसंभवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनम्, इदमस्मिन् सत्येव भवतीत्याद्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः॥ ७-३॥
प्र० न० तत्वा०। परीक्षामुख के दोनों सूत्र सरल और लघु होते हुए भी जिस अर्थ का स्पष्ट बोधन कर रहे हैं उसी अर्थ को प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार का कठिन सूत्र परिमोण में उन दोनों सूत्रों से लम्बा होता हुआ भी स्पष्ठ बोधन नहीं कर सका है, इसीलिये सूत्र में दो आदि शब्द ग्रन्थकार को प्रविष्ट करने पड़े हैं। इस सूत्र में "त्रिकालीकलित" यह अंश निरर्थक ही है कारण व्याप्ति सर्वोपसंहारवती ही होती है अर्थात् सर्व देश, सर्वकाल को व्याप्त करके ही रहती है इसलिये इस अंश के बिना भी वह अर्थ आगे के अंश से निकल ही आता है। जान पड़ता है ग्रन्थकार इस सूत्र को बनाते समय अवश्य ही किसी दूसरे विचार में मग्न थे अन्यथा वे "त्रिकालीकलित” इस अंश के साथ "सर्वदेशकलित" इस अंश का भी सूत्र में निवेश करने से नहीं चूकते, कारण कि उनके मतानुसार इस अंश के अभाव में भी सूत्र के अर्थ में कमी रह जाती है। हो सकता है कि ग्रन्थकार ने सूत्र के लम्बेपन के भय से ही इस अंश का निवेश न किया हो। यह भी मालूम होता है कि ग्रन्थकार का 'इस बात का बहुत भय था कि हमारा ग्रन्थ परीक्षामुख की नकल न समझ लिया जाय, इसलिये उन्होंने अपने प्रन्थ की रचना को स्वतंत्र सिद्ध करने में अधिक परिश्रम किया