Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१३:
इसकी एक प्रति अंकलेश्वर दिगंबर जैन मंदिर में और दूसरी अपूर्ण प्रति प्रतापगढ़ ( मालवा ) के पुराने जैन मंदिर में है ।
शब्दार्णव (जैनेन्द्र- व्याकरण- परिवर्तित सूत्रपाठ ) :
आचार्य गुणनंदि ने 'जैनेन्द्रव्याकरण' के मूल ३००० सूत्रपाठ को परिवर्तित और परिवर्धित करके व्याकरण को सर्वांगपूर्ण बनाने की कोशिश की है । इसका रचना - काल वि० सं० १०३६ से पूर्व है ।
व्याकरण
शब्दार्णवप्रक्रिया के नाम से छपे हुए ग्रन्थ के अंतिम श्लोक में कहा है : 'सैषा श्रीगुणनन्दिता नितवपुः शब्दार्णवे निर्णयं नावत्या श्रयतां विविक्षुमनसां साक्षात् स्वयं प्रक्रिया ।'
अर्थात् गुणनंदि ने जिसके शरीर को विस्तृत किया उस 'शब्दार्णव' में प्रवेश करने के लिये यह प्रक्रिया साक्षात् नौका के समान है ।
शब्दार्णवकार ने सूत्रपाठ के आधे से अधिक वे ही सूत्र रखे हैं, संज्ञाओं और सूत्रों में अंतर किया है। इससे अभयनंदि के स्वीकृत सूत्रपाठ के साथ ३००० सूत्रों का भी मेल नहीं है ।
यह संभव है कि इस सूत्रपाठ पर गुणनंदि ने कोई वृत्ति रची हो परंतु ऐसा कोई ग्रन्थ अद्यापि उपलब्ध नहीं हुआ है ।
गुणनंदि नामके अनेक आचार्य हुए हैं। एक गुणनंदि का उल्लेख श्रवण बेल्गोल के ४२, ४३ और ४७ वें शिलालेखा में है। उसके अनुसार वे बलाकपिच्छ के शिष्य और गृपृच्छ के प्रशिष्य थे । वे तर्क, व्याकरण और साहित्यशास्त्र के निपुण विद्वान् थे । उनके पास ३०० शास्त्र - पारंगत शिष्य थे, जिनमें ७२ शिष्य तो सिद्धान्त के पारगामी थे आदिपंप के गुरु देवेन्द्र के भी वे गुरु थे ।' 'कर्नाटक- कविचरिते' के कर्ता ने उनका समय वि० सं० ९५७ निश्चित
।
किया है । यही गुणनंदि आचार्य 'शब्दार्णव' के कर्ता हो ऐसा अनुमान है ।
तच्छिष्यो गुणनन्दिपण्डितयतिश्वारिश्रचक्रेश्वरः
1.
तर्क-व्याकरणादिशास्त्रनिपुणः साहित्यविद्यापतिः । मिथ्यात्वादिमहान्धसिन्धुरघटा संघातकण्ठीरवो भम्याम्भोजदिवाकरो विजयतां कन्दर्पदर्पापहः ॥
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