Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अन्थकर्ता ने अपने पूर्व के व्याकरणों में रही हुई त्रुटियाँ, विशृङ्खलता, क्लिष्टता, विस्तार, दूरान्वय, वैदिक प्रयोग आदि से रहित, निर्दोष और सरल व्याकरण की रचना की है। इसमें सात अध्याय संस्कृत भाषा के लिये हैं तथा आठवाँ अध्याय प्राकृत भाषा के लिये है । प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं । कुल मिलाकर ४६८५ सूत्र हैं । उणादिगण के १००६ सूत्र मिलाते हुए सूत्रों की कुल संख्या ५६९१ है । संस्कृत भाषा से सम्बन्धित ३५६६ और प्राकृत भाषा से सम्बन्धित १९१९ सूत्र हैं
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इस व्याकरण के सूत्रों में लाघव, इसकी लघुवृत्ति में उपयुक्त सूचन, बृहद्वृत्ति में विषय-विस्तार और बृहन्न्यास में चर्चा बाहुल्य की मर्यादाओं से यह व्याकरणग्रन्थ अलंकृत है । इन सब प्रकार की टीकाओं और पंचांगी से सर्वागपूर्ण व्याकरणग्रन्थ श्री हेमचन्द्रसूरि के सिवाय और किसी एक ही ग्रन्थकार ने निर्माण किया हो ऐसा समग्र भारतीय साहित्य में देखने में नहीं आता । इस व्याकरण की रचना इतनी आकर्षक है कि इस पर लगभग ६२-६३ टीकाएँ, संक्षिप्त तथा सहायक ग्रन्थ एवं स्वतन्त्र रचनाएँ उपलब्ध होती हैं ।
श्री हेमचन्द्राचार्य की सूत्र -संकलना दूसरे व्याकरणों से सरल और विशिष्ट प्रकार की है। उन्होंने संज्ञा, संधि, स्यादि, कारक, पत्व णत्व, स्त्री-प्रत्यय, समास, आख्यात, कृदन्त और तद्धित - इस प्रकार विषयक्रम से रचना की है। और संज्ञाएँ सरल बनाई हैं ।
श्री हेमचन्द्राचार्य का दृष्टिकोण शैक्षणिक था, इससे उन्होंने पूर्वाचार्यों की रचनाओं का इस सूत्र - संयोजना में सुन्दरता से उपयोग किया है । वे विशेषरूप से शाकटायन के ऋणी हैं । जहाँ उनके सूत्रों से काम चला वहाँ वे ही सूत्र कायम रखे, पर जहाँ कहीं त्रुटि देखने में आई वहाँ उन्हें बदल दिया और उन सूत्रों को सर्वग्राही बनाने की भरसक कोशिश की । इसीलिये तो उन्होंने आत्मविश्वास से कहा है कि - 'भकुमारं यशः शाकटायनस्य' - अर्थात् शाकटायन का यश कुमारपाल तक ही रहा, 'चूँकि तब तक 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' न रचा गया था और न प्रचार में आया था ।
श्री हेमचन्द्राचार्यविरचित अनेक विषयों से सम्बद्ध ग्रन्थ निम्नलिखित हैं : व्याकरण और उसके अंग
नाम
१. सिद्धम- लघुवृत्ति
२. सिद्धम- बृहद्वृत्ति ( तत्त्वप्रकाशिका )
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श्लोक-प्रमाण
६०००
१८०००
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