Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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तीसरा प्रकरण अलङ्कार
। वामन ने अपने 'काव्यालंकारसूत्र' में 'अलंकार' शब्द के दो अर्थ बताये हैं : १. सौन्दर्य के रूप में (सौन्दर्यमलंकारः) और २. अलंकरण के रूप में (अलंक्रियतेऽनेन, करणव्युत्पत्या पुनरलंकारशब्दोऽयमुपमादिषु वर्तते)। इनके मत में काव्यशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ को काव्यालंकार इसलिये कहते हैं कि उसमें काव्यगत सौन्दर्य का निर्देश और आख्यान किया जाता है। इससे हम 'काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात्' काव्य को ग्राह्य और श्रेष्ठ मानते हैं।
'अलंकार' शब्द के दूसरे अर्थ का इतिहास देखा जाय तो रुद्रदामन के शिलालेख के अनुसार द्वितीय शताब्दी ईस्वी सन् में साहित्यिक गद्य और पद्य को अलंकृत करना आवश्यक माना जाता था। __ 'नाट्यशास्त्र' (अ० १७, १-५) में ३६ लक्षण गिनाये गये हैं। नाट्य में प्रयुक्त काव्य में इनका व्यवहार होता था। धीरे-धीरे ये लक्षण लुप्त होते गये और इनमें से कुछ लक्षणों को दण्डी आदि प्राचीन आलंकारिकों ने अलंकार के रूप में स्वीकार किया। भूषण' अथवा विभूषण नामक प्रथम लक्षण में अलंकारों और गुणों का समावेश हुआ ।
'नाट्यशास्त्र' में उपमा, रूपक, दीपक, यमक—ये चार अलंकार नाटक के अलंकार माने गये हैं।
जैनों के प्राचीन साहित्य में 'अलंकार' शब्द का प्रयोग और उसका विवेचन कहाँ हुआ है और अलंकार-सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थ कौन-सा है, इसकी खोज करनी होगी।
जैन सिद्धांत-ग्रंथों में व्याकरण की सूचना के अलावा काव्यरस, उपमा आदि विविध अलंकारों का उपयोग हुआ है। ५ वीं शताब्दी में रचित नन्दिसूत्र में
१. भूषण की व्याख्या-अलंकारैर्गुणैश्चैव बहुभिः समलङ्कृतम् ।
भूषणैरिव चित्राथैस्तद् भूषणमिति स्मृतम् ॥
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