Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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मलका २
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संस्कृत के सूत्रबद्ध इस ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं। पहले अध्याय में काव्य का प्रयोजन और लक्षण है । दूसरे में रस का निरूपण है । तीसरे में शब्द, वाक्य, अर्थ और रस के दोष बताये गए हैं। चतुर्थ में गुणों की चर्चा की गई है। पाँचवें अध्याय में छः प्रकार के शब्दालंकारों का वर्णन है। छठे में २९ अर्थालंकारों के स्वरूप का विवेचन है। सातवें अध्याय में नायक, नायिका. और प्रतिनायक के विषय में चर्चा की गई है। आठवें में नाटक के प्रेक्ष्य और श्रव्य-ये दो भेद और उनके उपभेद बताये गए हैं। इस प्रकार २०८ सूत्रों में साहित्य और नाट्य-शास्त्र का एक ही ग्रन्थ में समावेश किया गया है।
कई विद्वान् आचार्य हेमचंद्र के 'काव्यानुशासन' पर मम्मट के 'काव्यप्रकाश' की अनुकृति होने का आक्षेप लगाते हैं। बात यह है कि आचार्य हेमचंद्र ने अपने पूर्वज विद्वानों की कृतियों का परिशीलन कर उनमें से उपयोगी दोहन कर विद्यार्थियों के शिक्षण को लक्ष्य में रखकर 'काव्यानुशासन' को सरल
और सुबोध बनाने की भरसक कोशिश की है। मम्मद के 'काव्यप्रकाश' में जिन विषयों की चर्चा १० उल्लास और २१२ सूत्रों में की गई है उन सब विषयों का समावेश ८ अध्यायों और २०८ सूत्रों में मम्मट से भी सरल शैली में किया है । नाट्यशास्त्र का समावेश भी इसी में कर दिया है, जबकि 'काव्यप्रकाश' में यह विभाग नहीं है।
भोजराज के 'सरस्वती-कण्ठाभरण' में विपुल संख्या में अलंकार दिये गये हैं । आचार्य हेमचंद्र ने इस ग्रन्थ का उपयोग किया है, ऐसा उनकी 'विवेकवृत्ति' से मालूम पड़ता है, लेकिन उन अलंकारों की व्याख्याएँ सुधार-संवार कर अपनी दृष्टि से श्रेष्ठतर बनाने का कार्य भी आचार्य हेमचंद्र ने किया है।
जहाँ मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में ६१ अलंकार बताये हैं वहाँ हेमचंद्र ने छठे अध्याय में संकर के साथ २९ अर्थालंकार बताये हैं। इससे यही व्यक्त होता है कि हेमचंद्र ने अलंकारों की संख्या को कम करके अत्युपयोगी अलंकार ही बताये हैं। जैसे, इन्होंने संसृष्टि का अन्तर्भाव संकर में किया है। दीपक का . लक्षण ऐसा दिया है जिससे इसमें तुल्ययोगिता का समावेश हो। परिवृत्ति नामक अलंकार का जो लक्षण दिया है उसमें मम्मट के पर्याय और परिवृति दोनों को अन्तर्भाव हो जाता है। रस, भाव इत्यादि से संबद्ध रसवत् , प्रेयस् , ऊर्जस्विन् , समाहित आदि अलंकारों का वर्णन नहीं किया गया। अनन्वय और उपमेयोपमा को उपमा के प्रकार मानकर अंत में उल्लेख कर दिया गया। प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त तथा दूसरे लेखकों द्वारा निरूपित निदर्शना का अन्तर्भाव
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