Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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किस संवत् या शताब्दी में रचा गया, यह निश्चित नहीं है। यदि इसे दसवीं शताब्दी का ग्रन्थ माना जाय तो यह अलंकारविषयक सर्वप्रथम रचना मानी जा सकती है। विक्रम की १० वीं शताब्दी में मुनि अजितसेन ने 'शृङ्गारमञ्जरी' ग्रंथ की रचना की है परन्तु वह ग्रन्थ अभी तक देखने में नहीं आया। उसके बाद थारापद्रीयगच्छ के नमिसाधु ने रुद्रट कवि के 'काव्यालंकार' पर वि० सं० ११२५ में टीका लिखी है। उसके बाद की तो आचार्य हेमचन्द्रसूरि, महामात्य अम्बाप्रसाद और अन्य विद्वानों की कृतियाँ उपलब्ध होती हैं। __ आचार्य रत्नप्रभसूरिरचित 'नेमिनाथचरित' में अलंकारशास्त्र की विस्तृत चर्चा आती है। इस प्रकार अन्य विषयों के ग्रन्थों में प्रसंगवशात् अलंकार और रसविषयक उल्लेख मिलते हैं ।
जैन विद्वानों की इस प्रकार की कृतियों पर जैनेतर विद्वानों ने टीकाग्रंथों की रचना की हो, ऐसा 'वाग्भटालंकार' के सिवाय कोई ग्रन्थ सुलभ नहीं है। जैनेतर विद्वानों की कृतियों पर जैनाचार्यों के अनेक व्याख्याग्रंथ प्राप्त होते हैं। ये ग्रंथ जैन विद्वानों के गहन पाण्डित्य तथा विद्याविषयक व्यापक दृष्टि के परिचायक हैं। अलङ्कारदर्पण ( अलंकारदप्पण):
__ 'अलंकारदप्पण' नाम की प्राकृत भाषा में रची हुई एकमात्र कृति, जोकि वि० सं० ११६१ में तालपत्र पर लिखी गई है, जैसलमेर के भण्डार में मिलती है। उसका आन्तर निरीक्षण करने से पता लगता है कि यह ग्रन्थ संक्षिप्त होने पर भी अलंकार-ग्रन्थों में अति प्राचीन उपयोगी ग्रन्थ है। इसमें अलंकार का लक्षण बताकर करीब ४० उपमा, रूपक आदि अर्थालंकारों और शब्दालंकारों के प्राकृत भाषा में लक्षण दिये है। इसमें कुल १३४ गाथाएँ है । इसके कर्ता के विषय में इस ग्रन्थ में या अन्य ग्रन्थों में कोई सूचना नहीं मिलती। कर्ता ने मंगलाचरण में श्रुतदेवी का स्मरण इस प्रकार किया है :
सुंदरपअविण्णासं विमलालंकाररेहिअसरीरं ।
सुह (?य) देविअंच कव्वं पणवियं पवरवण्णड्ढ ।। इस पद्म से मालूम पड़ता है कि इस ग्रन्थ के रचयिता कोई जैन होंगे जो वि० सं० ११६१ के पूर्व हुए होंगे। ___मुनिराज श्री पुण्यविजयजी द्वारा जैसलमेर की प्रति के आधार पर की हुई प्रतिलिपि देखने में आई है।
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