Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास काव्यरस का उल्लेख है। 'स्वरपाहुड' में ११ अलंकारों का उल्लेख है और 'अनुयोगद्वारसूत्र' में नौ रसों के ऊहापोह के अलावा सूत्र का लक्षण बताते हुए कहा गया है:
निहोसं सारमंतं च हेउजुत्तमलंकियं ।
उवणीअं सोवयारं च मियं महुरमेव च ॥ अर्थात् सूत्र निर्दोष, सारयुक्त, हेतुवाला, अलंकृत, उपनीत–प्रस्तावना और उपसंहारवाला, सोपचार-अविरुद्धार्थक और अनुप्रासयुक्त और मितअल्पाक्षरी तथा मधुर होना चाहिये ।
विक्रम संवत् के प्रारंभ के पूर्व ही जैनाचार्यों ने काव्यमय कथाएँ लिखने का प्रयत्न किया है। आचार्य पादलिप्त की तरंगवती, मलयवती, मगधसेना, संघदासगणिविरचित वसुदेवहिंडी तथा धूर्ताख्यान आदि कथाओं का उल्लेख विक्रम की पांचवीं-छठी सदी में रचित भाष्यों में आता है। ये ग्रन्थ अलंकार और रस से युक्त हैं।
विक्रम की ७ वीं शताब्दी के विद्वान् जिनदासगणि महत्तर और ८ वी शताब्दी में विद्यमान आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में 'कग्वालंकारेहिं जुत्तमः लंकिय' काव्य को अलंकारों से युक्त और अलंकृत कहा है।
हरिभद्रसूरि ने 'आवश्यकसूत्र-वृत्ति' (पत्र ३७५ ) में कहा है कि सूत्र बत्तीस दोषों से मुक्त और 'छवि' अलंकार से युक्त होना चाहिये । तात्पर्य यह है कि सूत्र आदि की भाषा भले ही सीधी-सादी स्वाभाविक हो परन्तु वह शब्दालंकार और अर्थालंकार से विभूषित होनी चाहिये । इससे काव्य का कलेवर भाव
और सौंदर्य से देदीप्यमान हो उठता है। चाहे जैसी रुचिवाले को ऐसी रचना हृदयंगम होती है।
प्राचीन कवियों में पुष्पदंत ने अपनी रचना में रुद्रट आदि काव्यालंकारिकों का स्मरण किया है। जिनवल्लभसूरि, जिनका वि० सं० ११६७ में स्वर्गवास हुआ, रुद्रट, दंडी, भामह आदि आलंकारिकों के शास्त्रों में निपुण थे, ऐसा कहा गया है।
जैन साहित्य में विक्रम की नवीं शताब्दी के पूर्व किसी अलंकारशास्त्र की स्वतंत्र रचना हुई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। नवीं शताब्दी में विद्यमान आचार्य बप्पभट्टिसूरिरचित 'कवि-शिक्षा' नामक रचना उपलब्ध नहीं है । प्राकृत भाषा में रचित 'अलंकारदर्पण' यद्यपि वि० सं० ११६५ के पूर्व की रचना है परंतु यह
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