Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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छन्द
१३५ प्रथम अध्याय में छन्द-विषयक परिभाषा याने वर्णगण, मात्रागण, वृत्त, समवृत्त, विषमवृत्त, अर्धसमवृत्त, पाद और यति का निरूपण है।।
दूसरे अध्याय में समवृत्त छन्दों के प्रकार, गणों की योजना और अन्त में दण्डक के प्रकार बताये गये हैं। इसमें ४११ छन्दों के लक्षण दिये हैं।
तीसरे अध्याय में अर्धसम, विषम, वैतालीय, मात्रासमक आदि ७२ छन्दों के लक्षण दिये हैं।
चौथे अध्याय में प्राकृत छन्दों के आर्या, गलितक, खंजक और शीर्षक नाम से चार विभाग किये गए हैं। इसमें प्राकृत के सभी मात्रिक छन्दों की विवेचना है।
पाँचवें अध्याय में अपभ्रंश के उत्साह, रासक, रड्डा, रासावलय, धवलमंगल आदि छन्दों के लक्षण दिये हैं।
छठे अध्याय में ध्रुवा, ध्रुवक याने घत्ता का लक्षण है और षटपदी तथा चतुष्पदी के विविध प्रकारों के बारे में चर्चा है।
सातवें अध्याय में अपभ्रंश साहित्य में प्रयुक्त द्विपदी की विवेचना है । आठवें अध्याय में प्रस्तार आदि विषयक चर्चा है।
इस विषयानुक्रम से स्पष्ट होता है कि यह ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विविध छन्दों पर सर्वाङ्गपूर्ण प्रकाश डालता है। विशेषता की दृष्टि से देखें तो वैतालीय और मात्रासमक के कुछ नये भेद, जिनका निर्देश पिंगल, जयदेव, विरहांक, जयकीर्ति आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने नहीं किया था, हेमचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत किये; जैसे-दक्षिणांतिका, पश्चिमांतिका, उपहासिनी, नटचरण, नृत्तगति । गलितक, खंजक और शीर्षक के क्रमशः जो भेद बताये गये हैं वे भी प्रायः नवीन हैं।
कुल सात-आठ सौ छन्दों पर विचार किया है। मात्रिक छन्दों के लक्षण दर्शानेवाले हेमचन्द्र के 'छन्दोऽनुशासन' का महत्व नवीन मात्रिक छन्दों के उल्लेख की दृष्टि से बहुत अधिक है। यह कह सकते हैं कि छन्द के विषय में ऐसी सुगम और सांगोपांग अन्य कृति सुलभ नहीं है।'
. यह ग्रन्थ स्वोपज्ञवृत्ति के साथ सिंघी जैन ग्रंथमाला, बम्बई से प्रो. वेलण
कर द्वारा संपादित होकर नई भावृत्ति के रूप में प्रकाशित हुआ है।
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