Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
११४
श्रुत्वा
मा
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इस समस्यापूर्ति से सत्र प्रसन्न हुए और आचार्य अमरचंद्रसूरि समस्त कविमंडल में श्रेष्ठ कवि के रूप में मान पाने लगे। ये 'वेणीकृपाण अमर' नाम से भी प्रख्यात हैं ।
सहसावतीर्णे
ध्वनेर्मधुरतां भूमौ मृगे विगतलान्छन एव चन्द्रः । गान्मदीयवदनस्य तुलामतीवगीतं न गायतितरां युवतिर्निशासु ॥
इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है, जिनके आधार पर मालूम होता है कि ये व्याकरण, अलंकार, छंद इत्यादि विषयों में बड़े प्रवीण थे । इनकी रचनाशैली सरल, मधुर, स्वस्थ और नैसर्गिक है । इनकी रचनाएँ शब्दालंकारों और अर्थालंकारों से मनोहर बनी हैं। इनके अन्य ग्रन्थ ये हैं : १. स्यादिशब्दसमुच्चय, २. पद्मानन्दकाव्य, ३. बालभारत, ४. छंदोरत्नावली, ५. द्रौपदीस्वयंवर, ६. काव्यकल्पलतामञ्जरी, ७. काव्यकल्पलता-परिमल, ८. अलंकारप्रबोध, ९. सूक्तावली, १०. कलाकलाप आदि ।
१
6
काव्यकल्पलतापरिमल-वृत्ति तथा काव्यकल्पलता मञ्जरी-वृत्ति :
'काव्यकल्पलता- वृत्ति' पर ही आचार्य अमरचंद्रसूरि ने स्वोपज्ञ 'काव्यकल्पलतामञ्जरी', जो अभीतक प्राप्त नहीं हुई है, तथा ११२२ श्लोक- परिमाण 'काव्यकल्पलतापरिमल' वृत्तियों की रचना की है । "
काव्यकल्पलता वृत्ति- मकरन्दटीका :
'काव्यकल्पलतावृत्ति' पर आचार्य हीरविजयसूरि के शिष्य शुभविजयजी ने वि० सं० १६६५ में ( जहाँगीर बादशाह के राज्यकाल में ) आचार्य विजयदेवसूरि की आज्ञा से ३१९६ श्लोक-परिमाण एक टीका रची है ।'
१. यह ग्रंथ अनुपलब्ध 1
२. 'entouseपलतापरिमल' की दो हस्तलिखित अपूर्ण प्रतियाँ अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में हैं ।
Jain Education International
३. इसकी प्रतियाँ जैसलमेर के भंडार में और महमदाबादस्थित हाजा पटेल की पोल के उपाश्रय में हैं। यह टीका प्रकाशित नहीं हुई है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org