Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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व्याकरण
अपभ्रंश, पैशाची, मागधी और शौरसेनी में होनेवाले वर्णादेशोंका विधान इस प्रकार किया है : १. अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता है । २. पैशाची में 'र' और 'स' के स्थान में 'ल' और 'न' का आदेश होता है। ३. मागधी में 'र' और 'स' के स्थान में 'ल' और 'श' का आदेश होता है। ४. शौरसेनी में 'त्' के स्थान में विकल्प से 'द्' आदेश होता है। ____ इस प्रकार इस व्याकरण की रचनाशैली का ही बाद के वररुचि, हेमचन्द्राचार्य
आदि वैयाकरणों ने अनुसरण किया है। इससे चण्ड को प्राकृत व्याकरण के रचयिताओं में प्रथम और आदर्श मान सकते हैं।
__ इस 'प्राकृतलक्षण' के रचना-काल. से सम्बन्धित कोई प्रमाण उपलब्ध नीं है तथापि अन्तःपरीक्षण करते हुए डा० हीरालालजी जैन रचना-काल के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखते हैं :
"प्राकृत सामान्य का जो निरूपण यहाँ पाया जाता है वह अशोक की धर्मलिपियों की भाषा और वररुचि द्वारा 'प्राकृतप्रकाश' में वर्णित प्राकृत के बीच का प्रतीत होता है। वह अधिकांश अश्वघोष व अल्पांश भास के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों से मिलता हुआ पाया जाता है, क्योंकि इसमें मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यञ्जनों की बहुलता से रक्षा की गई है, और उनमें से प्रथम वर्गों में केवल 'क', 'व', तृतीय वर्गों में 'ग' के लोप का एक सूत्र में विधान किया गया है और इस प्रकार च, ट, त, प वर्णों की शब्द के मध्य में भी रक्षा की प्रवृत्ति सूचित की गई है। इस आधार पर 'प्राकृतलक्षण' का रचना-काल ईसा की दूसरी-तीसरी शती अनुमान करना अनुचित नहीं है।"
प्राकृतलक्षण-वृत्ति
'प्राकृतलक्षण' पर सूत्रकार चण्ड ने स्वयं वृत्ति की रचना की है। यह ग्रंथ एकाधिक स्थलों से प्रकाशित हुआ है ।'
१. ( क ) बिब्लिओथेका इण्डिका, कलकत्ता, सन् १८८०.
(ख) रेवतीकान्त भट्टाचार्य, कलकता, सन् १९२३. (ग) मुनि दर्शनविजयजी त्रिपुटी द्वारा संपादित–चारित्र ग्रंथमाला,
अहमदाबाद.
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