Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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व्याकरण
शब्दार्णवव्याकरण :
खरतरगच्छीय वाचक रत्नसार के शिष्य सहजकीर्तिगणि ने 'शब्दार्णवव्याकरण' की स्वतंत्ररूप से रचना वि० सं० १६८० के आसपास की है। इस व्याकरण में १. संज्ञा, २. श्लेष ( सन्धि ), ३. शब्द ( स्यादि ), ४. षत्व - णत्व, ५. कारकसंग्रह, ६. समास, ७. स्त्री-प्रत्यय, ८. तद्धित, ९. कृत् और १०. धातुये दस अधिकार हैं।' अनेक व्याकरण-ग्रंथों को देखकर उन्होंने अपना व्याकरण सरल शैली में निर्माण किया है ।
साहित्यक्षेत्र में अपने ग्रन्थ का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने अपनी लघुता का परिचय प्रशस्ति में इस प्रकार दिया है :
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'शब्दानुशासन की रचना कष्टसाध्य है । इस रचना में नवीनता नहीं है'ऐसा मात्सर्यवचन प्रमोदशील और गुणी वैयाकरणों को अपने मुख से नहीं कहना चाहिए । ऐसे शास्त्रों में जिन विद्वानों ने परिश्रम किया है वे ही मेरे श्रम को समझ सकेंगे। मैं कोई विद्वान् नहीं हूँ, मेरी चर्चा में विशेषता नहीं है, मुझ में ऐसी बुद्धि भी नहीं, फिर भी पार्श्वनाथ भगवान् के प्रभाव से ही इस ग्रंथ का निर्माण किया है ।
१. संज्ञा श्लेषः शब्दाः षत्व णत्वे कारकसंग्रहः । समासः स्त्रीप्रत्ययश्च तद्धिताः कृच्च धातवः ॥ दशाधिकारा एतेऽत्र व्याकरणे यथाक्रमम् । साङ्गाः सर्वत्र विज्ञेयाः यथाशास्त्रं प्रकाशिताः ॥ २. कष्टास्माभिरियं रीतिः प्रायः शब्दानुशासने ॥ नवीनं न किमप्यत्र कृतं मात्सर्यवागियम् । अमत्सरैः शब्दविद्भिः न वाच्या गुणसंग्रहैः ॥ एतादृशानां शास्त्राणां विधाने यः परिश्रमः । स एव हि जानाति यः करोति सुधीः स्वयम् ॥ नाहं कृती नो विवादे आधिक्यं मम मतिर्न च । केवलः पार्श्वनाथस्थ प्रभावोऽयं प्रकाशते ॥
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