Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Author(s): Bhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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पं० वंशीधरजी ने 'जैनेन्द्रप्रक्रिया', पं० और पं० राजकुमारजी ने 'जैनेन्द्रलघुवृत्ति' ।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
नेमिचन्द्रजी ने 'प्रक्रियावतार'
शाकटायन-व्याकरण :
पाणिनि वगैरह ने जिन शाकटायन नाम वैयाकरणाचार्य का उल्लेख किया पाणिनि के पूर्व काल में हुए थे परंतु जिनका 'शाकटायनव्याकरण' आज उपलब्ध है उन शाकटायन आचार्य का वास्तविक नाम तो है पाल्यकीर्ति और उनके व्याकरण का नाम है शब्दानुशासन । पाणिनिनिर्दिष्ट उस प्राचीन शाकटायन आचार्य की तरह पाल्य कीर्ति प्रसिद्ध वैयाकरण होने से उनका नाम भी शाकटायन और उनके व्याकरण नाम ' शाकटायनव्याकरण' प्रसिद्धि में आ
गया ऐसा लगता है ।
पाल्यकीर्ति जैनों के यापनीय संघ के अग्रणी एवं बड़े आचार्य थे । वे राजा अमोघवर्ष के राज्य-काल में हुए थे । अमोघवर्ष शक सं० ७३६ ( वि० सं० ८७१ ) में राजगद्दी पर बैठा । उसी के आसपास में यानी विक्रम की ९ वीं शती मैं इस व्याकरण की रचना की गई है ।
इस व्याकरण में प्रकरण विभाग नहीं है । पाणिनि की तरह विधान क्रम का अनुसरण करके सूत्र - रचना की गई है ।
यद्यपि प्रक्रिया -क्रम की रचना करने का प्रयत्न किया है परंतु ऐसा करने से किष्टता और विप्रकीर्णता आ गई है । उनके प्रत्याहार पाणिनि से मिलते-जुलते होने पर भी कुछ भिन्न हैं । जैसे- 'लुक' के स्थान पर केवल 'ऋ' पाठ है, क्योंकि 'ऋ' और 'ल' में अभेद स्वीकार किया गया है। 'हयवरट्' और 'लण्' को मिलाकर 'वेट' को हटा कर यहाँ एक सूत्र बनाया गया है तथा उपांत्य सूत्र 'शषसर' में विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय का भी समावेश करके काम लिया है। सूत्रों की रचना बिल्कुल भिन्न ढंग की है। इस पर कातंत्र - व्याकरण का प्रचुर प्रभाव है । इसमें चार अध्याय हैं और यह १६ पांदों में विभक्त है । यक्षवर्मा ने 'शाकटायनव्याकरण' की 'चिन्तामणि' टीका में इस व्याकरण की विशेषता बताते हुए कहा है :
'इष्टिर्नेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यानं नोपसंख्यानं यस्य शब्दानुशासने || इन्द्र-चन्द्रादिभिः शाब्दैर्यदुक्तं शब्दलक्षणम् । तदिहास्ति समस्तं च यत्रेहास्ति न तत् क्वचित् ॥'
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