Book Title: Jain Katharnava
Author(s): Kailassagar Ganivar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal
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जेन कथा
व:
| कालिकाचार्यकथा
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एवं भावयता तेन, गर्हता स्वं च दुष्कृतम् । निर्दग्धः सर्वतः कर्म-राशिः कक्ष इवाग्निना ॥ ५१ ।। अम्लानं केवलज्ञान-मथ लेभे सुदुर्लभम् । अयोगिकेवलिगुण--स्थानस्थो मोक्षमाप च ॥५२॥ योगप्रभावेण दृढपहारी, यथेष मुक्त्वा नरकातिथित्वम् । पदं प्रपेदे परमं तथान्योऽप्यसंशयानः प्रयतेत योगे ॥५३॥
इतिश्री मुद्रित-योगशास्त्रवृत्तित उद्धता
दृढपहारीकथा सम्पूर्णा.
३४ सत्यव्रतत्राणोपरि कालिकाचार्यकथा. अस्ति भूरमणीमौलिमणिस्तुरमणी पुरी । यथार्थनामा तत्रासीजितशत्रुर्महीपतिः॥१॥ रुद्रेति नामधेयेन, ब्राह्मणी तत्र विश्रुता । दत्त इत्यभिधानेन, तस्याः पुत्रो बभूव च ॥२॥ दत्तो नितान्तदुर्दान्तो, द्यूतमद्यप्रियः सदा । सेवितुं तं महीपालं, प्रवृत्तो वर्त्तनेच्छया ॥३॥ राज्ञा प्रधानीचक्रेऽसौ, छायावत्पारिपार्श्वकः । आरोहायोपसर्पन्त्या, विषवल्लेरपि द्रुमः ॥४॥ विभेद्य प्रकृतीरेष, राजानं निरवासयत् । पापात्मानः कपोताच, स्वाश्रयोच्छेददायिनः ॥ ५॥ तस्य राज्ञो दुरात्माऽसौ, राज्ये स्वयमुपाविशत् । क्षुद्रः पादान्तदानेऽपि, क्रामत्युच्छीर्षकावधि ॥ ६ ॥ पशुहिंसोत्कटान् यज्ञान-ज्ञो धर्मधिया व्यधात् । धूमर्मलिनयन् विश्वं, स मूरिख पातकैः ॥७॥
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