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और धर्म के फल में विश्वास उपन्न करने हेतु सुमित्रा की कथा का वर्णन है। वसुदेव घर त्याग कर चल देते हैं। सामली लंभक में सामली का परिचय है। गंधर्व दन्ता लंभक में विष्णुकुमार का चरित्र, विष्णुगीतिका की उत्पन्ति, चारू दन्त की आत्मकथा और गंधर्वदन्ता से परिचय, अमितगति विद्याधर का परिचय और अर्थर्ववेद की उत्पन्ति दी हुई है। पिप्पलाद को अथर्ववेद का प्रणेता कहा गया है। वाराणसी में सुलसा नाम की एक परिब्राजिका रहती थी। त्रियंडी याज्ञवल्क्य से वाद में हार जाने के कारण वह उसकी सेवा करने लगी। इन दोनों से पिप्पलादका जन्म हुआ। पिप्पलाद को उसके माता-पिता ने जन्म लेने के समय छोड़ दिया था, इसलिए उसने प्रदिष्ट होकर अथर्वेवेद की रचना की जिसमें मातमेध और पितृमेध का उपदेश दिया गया है। नील जल सालंभक में ऋषम स्वामी का चरित्र है।
नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार “हरिभद्र युगीन प्राकृत कथा साहित्य के विस्तृत धरातल और चेतना क्षेत्र को लक्ष्य कर हम इसे पूर्व की चली आती सभी कथात्मक प्रवृन्तियों का “संघातयुग” कह सकते हैं। प्रवृन्तियों के संघात के अवसर अर्थात काल ओर उनके सम्मिलन विन्दु की अपनी विशेषतायें होती हैं। संघात का कार्य नितान्त: व्यवस्था का कार्य है। इस व्यवस्था के साफल्य पर ही उस “संघात” की कोटि निर्भर करती है। एक ऐसी व्यवस्था या आधार, जिस पर संघात की अनेक कोटियां बन सकें, कथा साहित्य के लिये अधिक उपादेय और संगत मानी जानी चाहिए, यत: उनमें वर्गीकरण और असम्पृक्त-पृथक-पृथक सामान्य धाराओं के निरूपण की सुविधा रह सकती है। इस अर्थ में किसी भी साहित्यिक विधा की प्रवृत्तियों का संघात रासायनिक या द्रव्यमूलक संघात से भिन्न होता है। रासायनिक संघात में दो तत्व मिलकर सर्वथा एक नये तत्व का निर्माण कर देते हैं, जो प्रकृति, कार्य और द्वन्द्व में अपने पूर्व रूप से भिन्न पड़ जाता है। प्रवृन्तियों का संघात ऐसा नहीं होता। संघात में रहने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति, जो एक तत्व, धारा या सन्ता है, अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है और उस नयी उद्भावना अपना ऐसा अंश रखती है जो उस संघात का प्रतिफल है। प्रवृन्तियों के संघात को हम उद्भावना के लिए आवश्यक शर्त मान सकते हैं। प्रवृत्तियाँ इकट्ठी होकर जब मिलती है, तभी
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