Book Title: Jain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Author(s): Pushpa Tiwari
Publisher: Ilahabad University

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Page 195
________________ जाल - गवक्खाएं अत्युरसेज्जं 169 कामगजेन्द्र की कल्पना जालगवाक्ष जैसी फैल गयी-पसरइ व जालगवक्खएसु70 इस विवरण के से ज्ञात होता है कि गवाक्ष भवन ऊपरी तल पर बनाये जाते थे, जो राज्यपथ पर खुलते थे । जालगवाक्ष उन गोल खिड़िकयों को कहते थे, जिनसे भवन में हवा आती जाती थी। सम्भवतः इस समय तक जाल गवाक्ष कुछ बड़े आकार के बनने लगे थे। डा. कुमारस्वामी के अनुसार गुप्तयुग के वालायत गोल होते थे। तभी उनका नाम (बैल की आँख की तरह गोल) पड़ गया । 71 गवाक्षों से झाँकते हुए स्त्री मुख न केवल साहित्य में 72 अपितु कला में भी पाये जाते हैं । अजन्ता की गुफा 19 के मुखभाग में स्त्री मुखयुक्त गवाक्ष जालो की पंवितियाँ अंकित हैं 173 मालाए वेदिका एवं ध्वाजग्रभाग भी गवाक्ष प्रकार प्रतीत होते हैं । मालाए का अर्थ शब्दकोश में घर का उपरिभाग कियागया है। जिसे अर्थ में मंजिल तथा गुजराती में मालों कहा जाता था । सम्भवतः एक छोटी बालकनी के सदृश रही होगी। वेदिका वातपान का उल्लेख शुगकाल कुषाण काल में मिलता है। 74 सम्भवतः रोशनदान के लिए पुराना नाम आठवीं सदी में भी प्रचिलित रहा हो । बालकनी में कुवलयमाला कहा में निज्जूहय 75 तथा मत्तवारण 76 शब्दों का प्रयोग भी हुआ है । सम्भवतः इनके आकार में कुछ भेद होने से इन्हे भिन्न नाम प्रदान किये गये हैं । कपोतपाली का उद्द्योतन ने केवल एक बार उल्लेख किया है । अष्णा कओलवालीसुं 177 यह उद्योतन ने प्राचीन भारतीय स्थापत्य की उस परावतमाला की ओर संकेत किया है जो भवनों के शिखर पर बनायी जाने लगी थी। अनेकअलंकरणों के साथ भवनों के शिखरों पर पत्थरों के कबूतर भी शोभा के लिए बना दिये जाते थे । जिन्हें कपोतपाली कपोताली केवाली कहा जाता था। 78 गुप्तकालीन पदताड़ितकम् नामक ग्रन्थ में वरवनिताओं के भवनों के वर्णन ( 189 )

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