Book Title: Jain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Author(s): Pushpa Tiwari
Publisher: Ilahabad University

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Page 212
________________ आर्य-अनार्य संस्कृति के आधार पर था। प्रादेशिक जातियों में गुर्जर, सोरटट, मरहठ्ठ आदि अस्तित्व में आ रही थीं। विदेशी जाति हूण का क्षत्रिय और शूद्रों में विलय हो रहा था। उद्योतन ने तज्जिकों के उल्लेख द्वारा अरबों के प्रवेश की सूचना दी है। जैन कथाओं के अनुसार विवाह में चार फेरे ही लिए जाते थे। तत्कालीन ग्रामों का सामाजिक जीवन सरल था। कुवलयमाला से तत्कालीन समाज मे व्यवहृत 45 प्रकार के वस्त्रों 40 प्रकार के अलंकारों का पता चलता है। दुकूल का जोड़े के रूप में प्रयोग होने लगा था। नेत्रपट के दुकूल बनने लगे थे। गंगापट जैसी विदेशी शिल्क भारतीय बाजारों में आ गई थी। अमीरों द्वारा हंस गर्म, कूर्पासक, रल्लक एवं निर्धनों द्वारा कंथा, चीर आदि वस्त्रों का प्रयोग होता था। अलंकारो एवं प्रसाधनों के उल्लेख से स्पष्ट है कि अभिजात्य समाज का चित्रण कथाकारों को अधिक प्रिय था। श्रेष्ठि वर्ग का तत्कालीन राज्यव्यस्था में भी प्रभाव था। समाज की यह समृद्धि वाणिज्य एवं व्यापार की प्रगति पर आधारित थी। अच्छे-बुरे प्रकार के साधन धनोपार्जन के लिए प्रचलित थे। देशान्तर गमन, सागर-सन्तरण एवं साझेदारी व्यापार में दुहरा लाभ प्रदान करती थी। स्थानीय व्यापार में विपणि मार्ग और मण्डियाँ क्रय-विक्रय के प्रमुख केन्द्र थे। दक्षिण में विजयपुरी, उत्तर में वाराणसी एवं पश्चिम में सोपारक और प्रतिष्ठान देशी-विदेशी व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे। सोपारक में 18 देशों के व्यापारियों का एकत्र होना एवं 'देसिय-वणिय-मे लीए' (व्यापारी मण्डल) का सक्रिय होना इस बात का प्रमाण है। साहसी सार्थवाहों ने जल-थल मार्गों द्वारा न केवल भारत में अपितु पड़ोसी देशों से भी सम्पर्क स्थापित किये थे। आयात निर्यात की वस्तुओं में अश्व, गजपोत नील गया महिष का सम्मिलित होना तत्कालीन आर्थिक व्यापारिक क्रिया कलापो को सूचित करता है। दूर देशों की यात्रा करते समय पूरी तैयारी के साथ निकला जाता था। समुद्र यात्रा के प्रसंग भी मिलते हैं। ( 207)

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