Book Title: Jain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Author(s): Pushpa Tiwari
Publisher: Ilahabad University

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Page 208
________________ प्राकृत कथाओं की एक अन्य विशेषता यह है कि कथा में आये हुए प्रतीकों की उत्तरार्ध में व्याख्या कर दी जाती है। उदाहरणार्थ वासुदेव हिण्डी का इव्मयुक्त कहाणयं का उपसंहार अंश उद्धत किया जाता है अयमुपसंहारो-जहां सा गणिया, तहा धम्मसुई । जहा ते रायसुयाई, तहा सुर-मणुय सुहभागिणी पाणिणो। जहा आभरणाणि तहा देसविरतिसहियाणि तवोवहाणाणि । जहा सो इव्मपुत्तो, तहा मोक्खकंखी पुरिसो। जहा परिच्छा को सल्लं, तहा सम्मन्नाणं । जहा रयणणय पीढ, तहा सम्मद्दसंणं । जहां रयणाणि, तहा महव्वयाणि । जहा रयणविणियोगो, तहा निव्वाणसु हलाभोत्ति 1 विण्टरनित्स के अनुसार- “जैनों का कथा साहित्य सचमुच में विशाल है। इसका महत्व केवल तुलनात्मक परिकथा साहित्य के विद्यार्थी के लिये ही नहीं हैं, बल्कि साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा हमें इसमें जन साधारणा के वास्तविक जीवन की झाँकियाँ मिलती हैं। जिस प्रकार इन कथाओं की भाषा और जनता की भाषा में अनेक साम्य हैं, उसी प्रकार उनका वर्ण्य विषय भी विभिन्न वर्गों के वास्तविक जीवन का चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है। केवल राजाओं और पुरोहितों का जीवन ही इस कथा साहित्य में चित्रित नहीं हैं, अपितु साधारण व्यक्तियों का जीवन भी अंकित हैं। “अनेक कहनियों, दृष्टान्त-कथाओं, परिकथाओं में हमे ऐसे विषय मिलते हैं, जो भारतीय कथा साहित्य में पाये जाते हैं और इनमें से कुछ विश्व साहित्य में भी उपलब्ध हैं। “प्राचीन भारतीय कथाशिल्प के अनेक स्त्न जैन टीकाओं कथा साहित्य के माध्यम से हमें प्राप्त होते हैं। टीकाओं में यदि इन्हे सुरक्षित न रखा जाता तो ये लुप्त हो गये होते। जैन साहित्य ने असंख्य निजन्धरी कथाओं के ऐसे भी मनोरंजक रूप सुरक्षित रखे हैं, जो दूसरे स्रोतों से जाने जाते हैं। (203)

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