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हैं। कुछ यज्ञ बाद में ब्राह्मण और बौद्ध देवताओं में रुपान्तरित पाये जाते हैं और उनका प्रभाव कुछ अंशों में प्रतिभा-विधान की परम्परा तथा यान्त्रिक पद्धतियों पर देखा जा सकता है ।
यक्षों की पूजा के अतिरिक्त नाना प्रेत, भूत और पशुओं की पूजा भी लोक में प्रचलित थी। इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, मुकुन्द, यक्ष, प्रेत, नाग, आदि के अनेक उत्सव मनाये जाते थे। इन अवसरों पर ब्राह्मणों और श्रमणों को, दरिद्रों और भिखारियों को दान दिये जाते थे और खिलाया जाता था। इन उत्सवों में जन-संमर्द और मद्यपान अविदित नही थे और इनकी तुलना बौद्ध ग्रन्थों में उल्लिखित 'समज्जा' से की जा सकती है।
याकोबी ने यह सुझाव प्रस्तुत किया है कि ब्राह्मण भिक्षुओं के अनुकरण में बौद्ध और जैन भिक्षुओं का उदय हुआ था। इसके समर्थन में उन्होंने मुख्य युक्ति यह दी है कि बौद्ध
और जैन भिक्षुओं के नियम गौतम और बौधायन के धर्म-सूत्रों में प्राप्त नियमों से सादृश्य रखते हैं। याकोबी का विश्वास था कि निवृत्ति का आदर्श ब्राह्मणों के धर्म में पहले उदित हुआ और चतुर्थ आश्रम के रूप में व्यक्त हुआ। बाद में इस आदर्श का बौद्धों और जैनों ने अनुसरण और अनुकरण किया।
'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति 'जिन' से हुयी है जिसका अर्थ है विजेता, अर्थात् अन्त:करण सहित इन्द्रियों को जिसने अपन वश में कर लिया है। जैने आचार्य परम्परा में बर्धमान जिन्हे महावीर का जाता है, सबसे अन्तिम तथा चौबीसवें थे। उनसे पहले तेईस तीर्थ के हो चुकने की बात कही जाती है, जो जैन धर्म के प्रारम्भ को बहुत पीछे काल्पनिक अतीत में पहुँचा देती है। इनमें से पार्शवनाथ को, जो वर्धमान से पहले हुए थे और जिन्हे आठवीं शताब्दी ई. पू. का एक ऐतिहासिक पुरुष माना जा सकता है। इस बात के प्रमाण है कि उनके अनुयायी वर्धमान के समकालीन थे। लेकिन तब उनके उपदेश में दूषण आ चुके थे। वर्धमान ने उसमें सुधार करके उसे नया बल प्रदान किया। जैन धर्म में आत्मा और पुद्गल को नित्य द्रव्य माना गया
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