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पर किया गया है। इन बारह व्रतों में क्रमश: पाँच अणुव्रत और शेष सात शिक्षा व्रत हैं। तीन गुणवतों और चार शिक्षा व्रतों का ही सामूहिक नाम शिक्षावत है।
समराइच्चकहा में उल्लिखित है कि श्रावक अतिचार से दूर रहता हुआ निम्नलिखित उत्तम गुणों को स्वीकार करता है। उर्ध्वादिग्गुणव्रत, अधोदिग्गुणव्रत, तिर्यक आदि गुणव्रत, भोगोपभोग परिमाण लक्षण गुणव्रत उपभोग और परिभोग का कारण स्वर और कर्म का त्याग, बुरे ध्यान से आचरित विरति गुणव्रत, प्रमाद से आचरित विरति गुणव्रत, पापकर्मोपदेश लक्षण विरति गुणव्रत, अनर्थ दण्ड विरति गुणव्रत, सावद्ययोग का परिवर्जन और निवद्ययोग का प्रतिसेवन रूप सामयिक शिक्षाव्रत और दिक्वत से ग्रहण किया हुआ दिशा के परमाण का-प्रतिदिन प्रमाण करण देशावकाशिक शिक्षा व्रत, आहार और शरीर के सत्कार से रहित ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन, व्यापार रहित पौषध शिक्षाव्रत का सेवन तथा न्यायपूर्वक अर्जित एवं कल्पनीय अन्नपान आदि द्रव्यों का देश-काल-श्रद्धा-सत्कार से युक्त तथा परम भक्ति से आत्मशुद्धि के लिए साधुओं को दान एवं अतिथि विभाग शिक्षाव्रत आदि सभी उत्तम गुणों के रूप स्वीकार किए गये हैं33 उपासक दशांग में श्रावकों के पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रतों के नाम गिनाये गए हैं।84 यहाँ तीन गुणव्रतों और समराइच्च कहा में श्रावकाचार्य के अन्तर्गत पाँच अणुव्रतों के साथ-साथ तीन गुणव्रतों का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।85 इन्हें गुणव्रत इसलिए कहा गया है कि इनसे अणुव्रत रूप मूलगुणों की रक्षा तथा विकास होता है। धार्मिक क्रियाओं में ही दिन व्यतीत करना पौषधोपवास व्रत कहलाता है। इन्हें गृहस्थों को यथाशक्ति प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी को करना चाहिए जिससे उसे भूख प्यास पर विजय प्राप्त हो।
श्रावक अतिचार समराइच्चकहा में गृहस्थ श्रावकों के लिए कुछ अतिचारों को गिनाया गया है जिनका पालन करना उनके लिए आवश्यक माना जाताथा। सांसारिक भ्रमण अथवा सांसारिक दुःखों के कारण भूत अतिचार इस प्रकार हैं86 –बन्ध, वध, किसी अंग का काटना, जानवरों पर अधिक
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