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के समय से नागबलि का प्रचार हुआ था । 160 २३ वें तीर्थकर पार्शवनाथ से नाग कुमार का श्रद्धालु के रूप में सम्बन्ध रहा है। महाभारत 161 में नागों को कद्रु अथवा सुरुा की जाति का कहा गया है। बौद्ध साहित्य में साधारण । मनुष्यों के रूप में इनका वर्णन मिलता है । बराहपुरुण मनुष्यों के रूप में इनका वर्णन मिलता है। बराहपुराण में नाग की उत्पत्ति के सम्बन्ध में रोचक वर्णन प्राप्त है । 162 कूछ आधुनिक विद्वानों ने भी नाग जाति के सम्बन्ध में अध्ययन पुस्तुत किए हैं। 163
वासुदेवहिण्डी के अनुसार नागों को बलि अर्पित की जाती थी। राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए नाग को बलि अर्पित किया था। गृहस्थ नाग देवता की पूजा करते थे। 164 वासुदेव हिण्डी से जानकारी प्राप्त होती है कि राजकीय बगीचे में नदी के तट पर 165 नाग का एक मन्दिर था । वासुदेवहिण्डी में यक्ष, भूत, राक्षस आदि का भी उल्लेख है ।
समराइच्चकहा में अन्य देवताओं की भाँति यक्षों को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था 1166 इस ग्रन्थ में सन्तान प्राप्ति की कामना से यक्ष- देव की पूजा का उल्लेख है । 167 यक्षों का इतिहास अतिप्राचीन जान पड़ता है। कुछ विद्वानों के विचार में यह कल्पना की जाती है कि यक्ष और नाग उत्तर भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व दस्युओं द्वारा उर्वरता और वर्षा के देव के रूप में पूजे जाते थे। 168 कुमार स्वामी ने अपना मत प्रतिपादित करते हुए कहा है कि यक्ष अपने संरक्षक देव की महत्ता को खोकर राक्षसी प्रवृत्ति के देवों में गिने जाने लगे जो कि धार्मिक ग्रन्थों की ईश्या से प्रभावित जान पड़ते हैं। 169 कुवलयमाला में यक्षों का वर्णन भगवान ऋषभ देव के भक्तों के रूप में किया गया है। यक्ष राजा रत्नशेखर की कथा से प्रतीत होता है कि यक्ष साधारण मनुष्यों की आकृति के होते थे, किन्तु उनमे कई सिद्धियाँ होती थीं। वे सामान्यतः लोगों के सहायक देवता थे । इस कारण प्राचीन भारत में पक्षपूजा का बहुत महत्व था। पक्षों की पूजा के लिए नगरों में यक्षायतन बने होते थे, इन्हे चैत्य कहते थे । 170 कुमार स्वामी ने वेदों और उपनिषदों का उद्धरण देते हुए यक्षों के विषय मे दो विचार धारायें प्रतिपादित
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