Book Title: Jain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Author(s): Pushpa Tiwari
Publisher: Ilahabad University

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ जिसमें छह पदार्थों का ही उल्लेख है और सूत्र में आये 'च' शब्द के आधार पर बाद में अभाव नाम साँतवें पदार्थ का माना गया है। एक प्रसंग में उद्द्योतन सूरि ने कणाद का भी उल्लेख अन्य आचार्यो के साथ किया है।4.38 कणाद वैशेषिक दर्शन के प्रमुख आचार्य थे । वैशेषिक सूत्र भाष्य के अन्त में भाष्यकार प्रशस्तपाद ने सूत्रकार कणाद की वन्दना की है, कहा है कि उन्होंने (काणाउ) योग और आचार से महेश्वर को प्रसन्न करके वैशेषिक - शास्त्र की रचना की थी। योग और आचार पशुपत या शैव सम्प्रदाय के भी अनुयायी रहे होंगे । आचार्य हरिभद्र सूरि ने भी कणाद के दर्शन को शव धर्म का प्रचारक कहा है 1439 मठ के छठवें व्याख्यान - मण्डप में प्रमाण, प्रमेय, संशय, निर्णय छल जाति निग्रहवादी नैयायिकों का दर्शन छात्रों को पढ़या जा रहा था ।440 न्याय दर्शन सोलह पर्दाथ स्वीकार करता है । गौतम प्रणीत न्यायसूत्र का प्रथम सूत्र इन सोलह पदार्थो का नाम निर्देश करता है। 441 उद्योतन सूरि ने उन सोलह पदार्थों में से प्रारम्भ में तीन, मध्य का एक (निर्णय) तथा अन्त में तीन पदार्थों का समास में निर्देश करते हुए अपने समय में न्यायसूत्र का पढ़ाया जाना व्यंजित किया है । कुवलयमाला में अन्यत्र न्याय - दर्शन के सम्बन्ध में इसके अतिरिक्त और कोई जानकारी नही दी हुई है । कणाद मुनिप्रवर्तित वैशेषिक दर्शन और गौतम मुनिप्रवर्तित न्याय दर्शन के सिद्धान्त एक जैसे हैं। न्याय दर्शन एक प्रकार से वैशेषिक सिद्धान्त की विस्तृत व्याख्या है या यो कहिये कि ये दोनो एक ही हैं जिसका पूर्वांग वैशेषिक है और उत्तराग न्याय इन दोनों दर्शनकारों का ठीक समय निश्चय करना अति कठिन है किन्तु सिद्ध है कि ये दोनों भगवान कपिल और पतंजलि मुनि के पीछे हुए है; क्यों कि इन्होंने अतीन्द्रिय पदार्थों के वास्तविक स्वरूप जानने के लिए योग का ही सहारा लिया है और व्यास तथा जैमिनि से पूर्वकाल में हुए हैं; क्यों कि ( 153 )

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220