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की हैं-प्रथम भय और अविश्वास जो कि प्राकृतिक क्योंकि आर्य लोग आर्योतर लोगों के देवताओं में विश्वास नहीं करते थे। दूसरा विचार पक्षों के विषय में उनके प्रति उच्च सम्मान का था जिसका उल्लेख अथर्ववेद और उपनिषद् में पाया जाता है। उन्ही के अनुसार बनस्पति और जल को वैदिक काल में जीवन का प्रतीक माना गया है जिसका सम्बन्ध यक्षों से रहा है, क्योंकि यक्ष सर्व प्रथम बनस्पतियों के देव समझे जाते थे जो जीवन, रस और जल का प्रतीक है।171
रतिलाल मेहता ने जातक कथाओं के आधार पर यह विचार प्रतिपादित किया है कि इन कथाओं में यक्षों की दयालुता का भाव समाप्त सा दिखाई देने लगा था और वे भयानक रूप में चित्रित किये जाने लगे थे। वे मनुष्य एवं जानवरों के माँस पर तथा प्रेत की तरह रेगिस्तान, जंगल, वृक्ष एवं जलों में रहते हुए वर्णित हैं ।172
आवश्यक चूर्णी में उल्लिखित है कि आडम्बर नामक एक यक्ष का आयतन हाल में मरे हुए हड्डियों के आयतन पर बनाया गया था।173 निशीथ चूर्णी के उल्लेख से पता चलता है कि यक्ष प्रसन्न होने पर लाभ तथा अप्रसन्न होने पर हानि भी पहुंचाने थे।174 जैन सूत्रों मे इन्द्रग्रह, धनुग्रह, स्कन्दग्रह और भूतग्रह के साथ-साथ यक्षग्रह का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।175
भूतः कुवलय माला में भूत का पिशाच के साथ उल्लेख हुआ है, जिसे राजा ने बलि दी थी।176 पुराणों मे इन्हे भयंकर और मांस भक्षी कहा गया है। कथा सरितसागर में इनका परिचय देते हुए कहा गया है कि भूतों के शरीर की छाया नहीं पड़ती, वे हमेशा नाक से बोलते है। जैन साहित्य में भी इनके प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। भूतमह नाम का उत्सव चैत्र पूर्णिमा को मनाया जाने लगा था।177
राक्षस: कुवलय माला में एक राक्षस का वर्णन है, जिसने लोभ देव का जहाज बदला लेने के लिए समुद्र में डुबो दिया था और अपनी दायी दीर्घ भुजा के प्रहार से टुकड़े-टुकड़े
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