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समराइच्चकहा के अनुसार श्रमण विकार रहित, सकल संगत्यागी, ध्यान-योग तथा तप में लीन तथा नियम एवं संयम से विहार भी करते थे ।103 श्रमणाचार के अन्तर्गत विहार का अधिक महत्व समझा जाता था। अत: श्रमण तथा श्रमणाचार्य सभी को धर्म प्रचार कर लोगों के दुःख को दूर करने वाले जैनाचारों से अवगत कराना था। श्रमणाचार के अन्तर्गत ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि अकेले ही विहार करने का विधान था।104 इस प्रकार की विधि से शिक्षा-दीक्षा द्वारा विहार करते हुए वर्षावास एक ही स्थान पर करते थे105 उपधान श्रुत में बताया गया है कि महावीर प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात विहार (पदयात्रा) के लिए तुरंत चल पड़े।106 निर्गंथ श्रमण वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहते तथा शेष ऋतुओं में पद यात्रा करते हुए स्थान-स्थान पर घूमते रहते थे।107 आचारांगसूत्र में विहार करने के सम्बन्ध में बताय गया है कि भिक्षु या भिक्षुणी को जब ज्ञात हो जाय कि वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है एवं वर्षा के कारण विविध प्रकार के जीवों की उत्पत्ति हो चुकी है तथा मार्गों में अंकुर आदि के कारण गमना गमन दुष्कर हो गया है, तब वह किसी निर्दोष स्थान पर वर्षावास अर्थात चातुर्मास करने के लिए टिक जाते थे परन्तु जहाँ स्वाध्याय आदि की सुविधा नही होती थी वहाँ नही टिकते थे ।108 समराइच्चकहा के अनुसार भिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरू की आज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य था।109
वासुदेव हिण्डी के अनुसार सन्यासी स्थिर रूप से एक स्थान पर नही टिकते थे ताक उनका मोह किसी स्थान विशेष और व्यक्ति के प्रति विकसित न हो सके। श्रेष्ठ सन्यासी जैसे हरिवाहन110 आदि भी स्थान-स्थान पर भ्रमण करते थे। वे एक स्थान पर बार-बार जाते थे परन्तु अधिक समय तक उस स्थान पर टिकते नहीं थे।111 वर्षाऋतु एक अपवाद थीं क्योंकि उस समय जीवधारी पौधों की उत्पत्ति हो जाती थी।112 वर्षा ऋतु में या अन्यथा सन्यासी
आबादी से दूर विहारों में रहना अधिक उचित समझते थे, चाहे वह नगर हो या ग्राम ।113 निवास के लिए व्यक्तिगत या सार्वजनिक बागों114 को जहाँ स्थानीय देवता की प्रतिमा स्थापित होती थी, अधिक उपयुक्त समझा जाता था।115 सन्यासी राजगृह नगर की गुफाओं में भी
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