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समराइच्चकहा में सांसारिक क्लेश के कारण ही सम्पूर्ण दुःखों के मोचक श्रमणत्व को ग्रहण करने का उल्लेख है।56
सांसारिक क्लेशों से छुटकारा पाकर मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन श्रमणाचरण ही माना जाता था। नारक, तिर्थक, मनुष्य और देवादि के द्वारा कुछ-न-कुछ पाप होता है और पाप से ही सभी क्लेश संग्रहीत होते हैं तथा व्यक्ति जब यह सोचता है कि किन कारणों से उसका जन्म हुआ और मृत्यु के पश्चात् उसका मगन्तव्य स्थान कहाँ है तो उसका यह चिन्तन श्रमणत्व का कारण बन जाता है।57
समराइच्चकहा में जैन सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार कर्मवृक्ष को समूल नष्ट करने के लिए और कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिए प्रव्रज्या रूपी अस्त्र कल्याण प्राप्ति का सहायक कहा गया है। शुभ परिणाम योग से प्रव्रज्या ग्रहण करना चरित्र पालन करते हुए आगमन-विधि से देह त्याग कर दैव-लोक की प्राप्ति में विश्वास किया जाता था।59 साधारण और मध्यम श्रेणी के लोग तिथकरण मुहूर्त एवं शुभ तिथियों की घड़ी में प्रवचन के पश्चात् पत्नी सहित प्रव्रज्या ग्रहण करते थे ।60 आर्थिक रूप से सम्पन्न और राजा-महाराजा लोग प्रव्रज्या ग्रहण करते समय प्रशस्त तिथि-करण मुहूर्त में पूजा, महादान, अष्टाहिका महिमा आदि के द्वारा माता-पिता, भाई, पत्नी तथा अन्य लोगों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करते थे।61
दीक्षा के पूर्व भगवान महावीर के शरीर पर चन्दन आदि का विलेपन किया गया था जससे उनपर चार मास से भी अधिक समय तक स्थान-स्थान पर नाना प्रकार के जीव-जन्तुओं का आक्रमण होता रहा ।62 उत्तम जाति तथा गुणवान् व्यक्तियों के लिए भी महा-प्रव्रज्या ग्रहण करने का विधान था।64 समराइच्चकहा की ही भाँति उत्तराध्ययन में प्रव्रज्या ग्रहण करने का कारण जीवन की क्षणभंगुरता तथा दुःखो के कारण को कहा गया है।65 कर्म-फल सभी को भोगना पड़ता है। इसमें बन्धु-बान्धव तथा निकट सम्बन्धी आदि कोई भी सहारा नहीं दे
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