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बालक और देवी के लिए रक्षा मंडला ग्रहण करने को कहा गया।75 पुत्र जन्म की सूचना मिलते ही राजा ने शरीर पर धारण किए हुये सभी आभूषण परिचारिका को दे डाले
और जन्मोत्सव मनाने का आदेश दे दिया। राजा का आदेश मिलते ही सारे नगर में समुद्र की गर्जना की भाँति तूर का शब्द गूंज उठा। राजमहल कस्तूरी के चूर्ण से पूर दिया गया। महलों में वार विलासिनयों के नृत्य होने लगे। नगर के लोग भी उल्लास पूर्वक नृत्य करने लगे। राजा ने उदारतापूर्वक इतना दान दिया कि ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जो उसके द्वारा प्रदान न की हो, ऐसा कोई व्यक्ति नही था, जिसे कुछ प्राप्त न हुआ हो ।276 जन्मोत्सव बारह दिनों तक मनाया जाता था। बारहवें दिन नाम संस्करण होता था।277 यह दिन इष्ट-मित्रों सहित प्रसन्नतापूर्वक व्यतीत किया जाता था।278
पंचधात्रि-संरक्षण नामकरण के बाद कुवलयचन्द्र की देखभाल पाँच धाइयों को सौंप दी गयी ।-79 जैन साक्ष्यों में मुख्यतया पाँच प्रकार की दाइयों का उल्लेख मिलता है-दूध पिलाने वाली, अलंकार करने वाली, नहलाने वाली, क्रीड़ा कराने वाली और बच्चे को गोद में लेकर खिलाने वाली ।280 इन दाइयों की कुशलता एवं कमजोरी का बालक पर कैसा प्रभाव पड़ता था इसकी विस्तृत जानकारी जैन कथाओं में प्राप्त होती है ।281
अभिषेकोत्सव-राजा अपने पुत्र के लिये अपार धन उत्तराधिकार में छोड़ता था और राज्य तथा समाज के बड़े व्यक्तियों के समक्ष युवराज को राजा बनाया जाता था।282 धीरे-धीरे यह कार्य उत्सव के रूप मे होने लगा। कुवलयचन्द्र के राज्याभिषेक के समय अयोध्या नगरी को सजाया गया। पूर्णरूप से सज जाने पर नगरी ऐसी प्रतीत होती मानो कोई कुलवधू सज धज कर अपने प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही हो ।283 नगरी के सज धज जाने पर दृढ़ वर्मन कुमार को अपने साथ हाथी पर चढ़ाकर नगर दर्शन के लिए निकल पड़ा। नगरवासियों ने कुमार का स्वागत किया।284
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