Book Title: Jain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Author(s): Pushpa Tiwari
Publisher: Ilahabad University

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Page 72
________________ भले ही घर में धन अपार हो,346 3. निज-बाहुबल द्वारा अर्जित धन से दान एवं पुण्य का कार्य करना श्रेष्ठ समझा जाता था,347 4. धनार्जन के लिए जाते समय पिता की आज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य था,348 5. दक्षिणापथ की यात्रा करना कठिन था। अत: व्यापारी पिता सम्भावित कठिनाइयों से पुत्र को अवगत कराते हुए उनसे बचने के कुशल उपाय बताता था तथा यात्रा की अनुमति देता था,349 6. यात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व इष्ट देवताओं की आराधना की जाती थी, 7. आवश्यक सामान साथ में लिया जाता था, 8. अन्य व्यापारियों को सूचना देकर उनसे सलाह ली जाती थी, 9. यदि पूँजी न हो तो प्रथम पूँजी की व्यवस्था की जाती थी350 10. कर्मकारों को इकट्ठा किया जाता था, 11. व्यापारियों को मार्ग में शबर डाकुओं का अधिक भय रहता था ।351 कुवलयमाला में प्रयुक्त ‘देसिय-वणिय-मेलिए' का अर्थ व्यापारियों के ऐसे संगठन से है, जिसके कुछ निश्चित नियम और कानून थे तथा जो व्यापारियों के हित में कार्य करता था। इस प्रकार व्यापारिक संगठन प्राचीन भारत में स्थापित हो चुके थे, जिन्हे 'निगम' कहा जाता था और जिनका प्रधान श्रेष्ठि होता था ।352 व्यापारिक श्रेणी के लिये 'देसिय' शब्द सम्भवत: उद्योतन ने प्रथम बार प्रयुक्त किया है। जार्ज ब्यूलर ने 'देशी' शब्द का अनुवाद साहित्यिक निर्देशक (Literary Guide) किया है ।353 जबकि इससे अर्थ में एपिग्राफिआ-इण्डिका में 'देशी' का अर्थ श्रेणी (GUILD OF DEALERS) बताया गया है ।354 उद्योतन सूरि के कुछ समय के बाद के अभिलेखों में भी 'देसी' शब्द व्यापारियों के संगठन के लिए प्रयुक्त हुआ है ।355 उद्योतन सूरि द्वारा प्रस्तुत वर्णन प्राचीन भारत के आन्तरिक व्यापार का महत्वपूर्ण पक्ष उजागर (प्रस्तुत) करता है। इस सामग्री की उपयोगिता न केवल प्राचीन भारतीय वाणिज्य के परिप्रेक्ष्य में है, वरन यह विदेशी व्यापार में प्रयुक्त आयात-निर्यात की वस्तुओं की विस्तृत (66)

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