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द्वारा उसे साथ ले जाने के समर्थन से इस स्थिति का स्पष्ट चित्र उपस्थित किया है ।226 । पत्नी के शील पर आशंका उसका त्याग भी कर देते थे तथा द्वितीय विवाह भी कर लेते थे227 । नव वधू का स्वागत घर में अच्छी तरह होता था।
माता-स्त्री के अनेक रूपों में मातृरुप सबसे अधिक आदरणीय और महत्व का माना जाता था। बन्ध्या होना स्त्री के लिए कलंक है। माता होने के साथ ही घर में स्त्री का स्थान ! बढ़ जाता है। गौतम धर्म सूत्र में उल्लेख है कि “गुरुओ में आचार्य श्रेष्ठ हैं, कई एक के मत.. में माता-28 । आपस्तम्ब का कथन है कि “माता पुत्र का महान कार्य करती है उसका राश्रूषा नित्य है, पतित होने पर भी229 ।” बौद्धायन ने पिता-माता का भरण-पोषण करने के लिये कहा, है-301
महाभारत में माता की प्रंशसा में गया कहा है कि माता के समान कोई शरण नहीं और न कोई गति है231 । समराइच्चकहा में वर्णित है कि, जय अपनी माता की प्रसन्नता के लिए विजय को राज्य सौंप कर मुनि बन जाता है। वह कहता है कि “करेउ पसायं अम्बा, पवज्जामि अट्ट समणत्णंति । भणिऊण निवडियो चलणेसु2327
वेश्या-हरिभद्र के उल्लेखों से मालूम पड़ता है कि उस समय इसको सामाजिक रूप प्राप्त था। मनुष्य की कामवासना और सौन्दर्य प्रियता ही इसके मूल में थी। वैदिक काल में233 भी वेश्या के अस्तित्व के उल्लेख प्राप्त होते हैं। समराइच्चकहा के अनुसार वेश्याएं उत्सवों में नृत्य करती थी234 | विवाह के अवसर पर वर का श्रृंगार भी वारि विलासिनियां ही करती थीं।235 । उस काल में वह इतनी घृणित नहीं समझी जाती थी। नृत्य, संगीत आदि ललित कलाओं में ये निपुण होती थीं।
साध्वी-समाज में साध्वी का स्थान बहुत ऊँचा था और पूज्यनीया समझी जाती थीं। संसार से विरक्त होकर आत्मकल्याण के कार्यो में रत रहती थीं।
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