Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 23
________________ जैन-जागरणके अग्रदूत उसी उत्पवर्ग मैने अ० जीका भाषण पहले-पहल गुना । यह सीगादे ढंगगे गग्न भाषागे वोगन गे-जो भी उनके भाषणको गुनता, वह प्रभावित पविना न गला । उनको गर्ने हिन्दीमें ही बोलने मुना। ni, जब गो: अंग्रेजी-माना नाम बीन-चीलगं अगंजी भी बोलने जाते । जनमाणमें आध्यात्मिा पट मनी भी। या अध्यात्ममय थे-माने नयां करने जोर आमगुमा ग्न यस और दारोगो देने पे। स्टागे उसोने नातुर्माग frया भागी गन्मानी आग्में जना गायंजना न्यायान आ| विषय ना 'सार' | मझे मकान भा-या अनुमान नगर गाउपार पर बोला हा, पर जन-गिलान्तली आयात्मिानागो जननापे नम्मा गदंगे। उन्होंने उगमा गय प्रविणायन रिया और फिर उगे गष्ट्रियनारे रगगे भी रंग दिया-पदेनी पकार भी 'उपहार' में ला दिया | गुननेवाले गी। ऐगा नापण उन्होने नही गुना होगा। जगवन्तनगग्न प्रतिष्ठोलावणी परिगगाप्तिपर पर जाने लगेहम लोग उनको विया पग्ने ग्टेगन नक गर्ग। मैने पगण-गज नी। आशीवाद देकर बोनदेगी, गिगरेट गभी मन पीना, गागफनो निगरेट पीकर बुरी गगतिगें पाने है।" . जो ना नन शा। जिन बात की चेतावनी जन्तीने मुझे दी थी, वह मेरे पाय-जीवनमें आगे आई थी। उनको शिक्षा ही नायद यह अनान प्रभाव पाकिम दुस्मगतिमें पउनेमे बन गया। यह अपने भातजनो चग्निनिर्माणका पूरा ध्यान रखते थे; पयोकि वह जानते थे कि कोरी श्रद्धा और छंछा शान, चरित्र विना अधूरे है। वह नियम नियाते थे, परन्तु यही, जिनको लेनेवाला सुगमतासे पाल मके। दिगम्बर जैन' और 'जन-मित्र' के पढते रहने से मुझे लेस लिसनेका चाव हुआ। मुझे ममाचार-पत्र पढनेका शौक 'दिगम्बर जैन' के सचित्र विशेषाकोसे हुआ। मैने भी कुछ लिखा । क्या? यह याद नही। वह शायद समाजोन्नतिके विषयपर था। उरते-डरते मैंने उसे ३० जीके

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