Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 143
________________ ५३७ सेठ मथुरादास टडैया निरन्तर देना, और बदलेमे कुछ भी पानेकी आशा न करना, उनके जीवनका यह आदर्श था। एक वार टीकमगढ़की एक स्त्री अपने तीन भूखे-प्यासे बच्चो-सहित उनके दरवाजे आ गिरी। बोली, जैन हूँ, तीन दिनसे निराहार हूँ। सेठजीने तत्काल उसको ससम्मान प्रश्रय दिया। उसके स्नानादिकी व्यवस्था की। भोजनकी सामग्नी दी, बर्तन दिये कि वह स्वयमेव शुद्ध विधिपूर्वक बनाकर खा ले । सेठजीको कुतुहल हुमा कि स्त्री, वास्तवमे, जैन है या यो ही झूठ बोलती है । पल्टूराम चौधरीको साथ लेकर, छिपकर उसकी भोजन बनानेकी विधिका निरीक्षण करने लगे। स्त्री रसोई बना रही थी, उधर बच्चे भूखके मारे चिल्ला रहे थे। स्त्रीने पहली ही रोटी तवेपर डाली कि बच्चोका धैर्य समाप्त हो गया। वे उसी अधकच्ची रोटीको ले लेनेके लिए लपके । सेठजीसे यह करुणाजनक दश्य न देखा गया। उसी समय नौकरके हाथ थोडी-सी मिठाई भेज दी। क्षुधातुर वच्चोको सब कहाँ ? एक बच्चेने एक साबित लड्डू अपने छोटे-से मुंहमे डूंस लिया और उसे निगलनेके लिए व्याकुलतापूर्वक रुआसा हो उठा । जैसे-तैसे स्त्रीने उसके मुंहमेंसे लड्डूको तोड-तोडकर निकाला और फिर अपने हाथो थोड़ा-थोड़ा-सा खिलायो । तत्पश्चात् हाथ धोकर रोटियां सेकने लगी। वह जैन थी और विधिपूर्वक ही उसने भोजन बनाया खाया ।' सेठजी सन्तुष्ट हुए, किन्तु साथ ही क्षुधाजनित व्यथाको साक्षात् देख इतने विगलित भी हुए कि वे उस दिन एकान्तमे बैठकर घंटो रोते रहे । उस स्त्री और उसके बच्चोको रोटी कपडो और वेतनपर नौकर रख लिया। मरते समय वेतन-स्वरूप जमा हुए उसके रुपये तथा अपनी ओरते भी २५० ६० देकर उसको इन शब्दोके साथ बिदा किया कि शायद उनकी मृत्युके वाद उनके उत्तराधिकारी उसके साथ निर्वाह न कर सकें, अत वह जाये और उन रुपयोसे कोई छोटी-मोटी पूंजीकी जीविका प्राप्त करके गुज़र करे। चाहे पारिवारिक हो चाहे सामाजिक, चाहे नागरिक हो, चाहे प्रादेशिक, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें उनकी उदारता स्पष्टतया परिलक्षित थी।

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