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सेठ मथुरादास टडया
५३५ डेरेपर पहुँचे और उनको अपने घर भोजनके लिए निमत्रित किया। चौधरी जी कह रहे थे कि जज साहवने उस दिन जो स्वागत-सत्कार किया, वह आज भी उनकी स्मृतिमें हरा है।
अपने जीवनमें उन्होने शायद ही कोई यात्रा ऐसी की हो, जिसमें मार्ग-व्यय आदिके अतिरिक्त २००-४०० रु० उनके और भी खर्च न हुए हो । विवाह-बारात आदिकी यात्राएँ भी उनके इस स्वभावकी अपवाद नही थी। किसीकी भी वारातमे जाते समय घरसे १०-२० सेर मिठाई-पूडी, काफी पान-सुपारी, इलायची आदि साथमें ले जाना और रास्ते भर बारातियोकी इस प्रकार खातिर करते चलना, मानो उन्हींके लड़केकी बारात हो, आज किसके द्वारा यह उदारता साध्य है ? तीर्थ, विमान, अधिवेशन आदि धार्मिक या सार्वजनिक यात्राओके समय समस्त सह्यात्रियोके सुखदुःखका दायित्व, मानो नैतिक रूपसे वे अपना ही समझते थे, और अपनी इस वृत्तिके प्रभावमे पैसा तो उदारतापूर्वक वे खर्च करते ही थे, अवसर आ पड़नेपर तन-मन देनेमे भी उन्हें सकोच नही होता था। एक बार प्रवासमे उनके सहयात्री श्री दमरू कठेल जव बीमार हो गये थे, तो उनके पाँव तक उन्होने बेझिझक दावे थे।
अपने नगर ललितपुर और प्रदेश बुन्देलखडके प्रति उनके हृदयमें नैसर्गिक ममता थी। एक वार, कुण्डलपुरमे महासभाके अधिवेशनके समय, एक व्यक्ति द्वारा बुन्देलखडके प्रति अपमान-जनक शब्द कहे जाने पर, उन्होने इतना सख्त रुख अख्तियार किया कि आराके प्रसिद्ध रईस और अधिवेशनके सभापति स्वय देवकुमारजी उन्हें मनानेके लिए आये और मुश्किलसे उन्हें शान्त कर सके । ललितपुरके प्रति लोगोमे सम्मान की भावना आये-उनका सदैव यही प्रयत्न रहा करता था। मस्तापुररथ-यात्राके समय वे तत्कालीन भावी सिंघईसे अपना यह आग्रह स्वीकार कराके ही माने थे कि पहले ललितपुरके विमानोका स्वागत किया जाय ।
उस समय समाज-सुधारके न तो इतने पहलू ही थे और न उनके प्रेरक बहुत-से दल ही। समाजमे नारीकी स्थितिके सम्बन्धमें उनका