Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 77
________________ १८० जैन-जागरणके अग्रदूत सन् १९२० के चैत्रमासमें मैने अपने साथियोके साथ पण्डित उमरावसिहजीको ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजीके नवीन सस्करणके रूपमे पहली बार देखा । काशी सस्कृत विद्याका पुरातन केन्द्र है । हिन्दू-विश्वविद्यालयको स्थापना हो जाने से सर्वागीण शिक्षाका केन्द्र बन गया है। न यहाँ विद्वानो की कमी है और न पुस्तकालयो की. ज्ञानाजन और ज्ञानप्रचारके प्रेमियों के लिए इससे उत्तम स्थान भारतवषमे नहीं है। जो ज्ञानानन्दी जीव एक बार उसके वातावरणका अनुभव कर लेता है, उसकी गुजर-बसर, फिर अन्यत्र नहीं हो पाती । समाजके प्राय समस्त शिक्षालयोके वातावरणका अनुभव करनेके वाद भी ब्रह्मचारीजी अपने पूर्वस्थान बनारसको न भूल सके और कई शिक्षासस्थाओके सचालनका भार स्वीकार करने पर भी उन्होने परित्यक्त बनारसको ही अपना कार्यक्षत्र बनाया। ___उन दिनो मध्यप्रदेशके रतौना गाँवमे सरकार एक कसाईखाना खोलनेका विचार कर रही थी, वहां प्रतिदिन कई हजार पशुओके कत्ल करनेका प्रवन्ध होने जा रहा था। इस वूचडखानेको लेकर अखबारी दुनियामे खूब आन्दोलन हो रहा था। स्थान-स्थानपर सरकारी मन्तव्यके विरोधमें सभा करके वाइसरायके पास तार भेजे जाते थे। रक्षाबन्धनके दिन स्याद्वादविद्यालयमे भी सभा हुई। बूचडखानेके विरोधमें पूज्य पण्डित गणेशप्रसादजी वर्णीका मर्मस्पर्शी भाषण हुआ। ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजीने दूचडखाना स्थापित होनेके विरोध मीठे सेवनका त्याग किया और अहिंसा धर्मका ससारमे प्रचार करनेके लिए एक अहिंसाप्रचारिणी परिषद् स्थापित करनेकी योजना सुझाई। मैं पहले वता चुका हूँ कि ज्ञानानन्दजी किसी आवश्यक विचारको 'काल करै सो आज कर, आज करै सो अव' सिद्धान्तके पक्के अनुयायी थे । अहिंसा-प्रचारको प्रस्तावित योजनाको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए उन्होने कलकत्तेकी यात्रा की और दशलाक्षणी पर्व वही बिताया। कलकत्तेकी दानी समाजने उनका खूब सम्मान किया और ८००० रुपये के लगभग अहिंसा-प्रचारके लिए भेंट किये । कलकत्तेसे

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