Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 89
________________ गुदड़ीमें लाल बावू सूरजभानु वकील सहारनपुरसे ६ मीलकी दूरीपर प० ऋषभदासजी चिलकाने रहनेवाले थे । इनके पिता प० मगलसैनजी ज़मीदार भ थे, बहुधाकर साहूकारी करते थे । प० ऋषभदासजीका देहान्त उनकी २६ बरसकी उमरमें ही, शायद सन् १८६२ ई० में या इसके करीब हो गया उन्होने चिलकाने में ही किसी मुसलमान मियाँजीसे किसी मकतवमें या उर्दू स्कूलमें तीन-चार वर्ष पढकर सिर्फ कुछ थोडा-सा उर्दू लिखना-पढन सीखा था, जैसा कि उस जमानेमें हमारी तरफ दस्तूर था । हिन्दी लिखनापढना उन्होने अपने पितासे ही सीखा, और फिर उन्हीके साथ स्वाध्याय करने लगे । इस स्वाध्यायसे ही वह ऐसे अद्वितीय विद्वान् हो गये कि जिसकी कुछ भी प्रशसा नही की जा सकती है। आप वडे तीक्ष्ण बुद्धि थे । न्याय और तर्कमें आपकी बुद्धि बहुत ही ज्यादा दौडती थी । चिलकानेसे १४ मीलके फासलेपर कस्वा नकुड हैं, जहाँका में रहनेवाला हूँ । यहाँ प० सन्तलालजी जैन, हिन्दी भाषा जाननेवाले जैनधर्मंके अच्छे विद्वान् रहते थे, वह भी बडे तीक्ष्णबुद्धि थे और न्याय तथा तर्कके शौकीन थे । परीक्षामुख और प्रमाण-परीक्षाको खूब 'समझे' हुए थे प० ऋषभदासजीके यह बहुत ही नजदीकी रिश्तेदार थे । उन्ही की सगतिसे प० ऋषभदासजीको न्याय और तर्कका शौक हुआ । एकमात्र इस शौक दिलाने या प्रवेश करानेके कारण ही प० ऋषभदासजी अपनेको १० सन्तलालजीका शिष्य कहा करते थे । प० मगलसैनजीने अपने दोनो बेटोको अलग-अलग साहूकारीकी दूकान करा दी थी और स्वय एक तीसरी दूकान साहूकारीकी करते थे । सन् १८८६ ई० में कस्बे रामपुर जिला सहारनपुरके उत्सवमें मैं भी गया और पं० ऋषभदासजी भी गये । मै उन दिनो सहारनपुर में

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