Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 129
________________ ४४६ जैन-जागरणके अग्रदूत कपडा और अपनी पसन्दकी काटका वस्त्र बनवायेंगे। विद्यार्थियोमे यह भी कुटेव थी कि रसोईके समय अपनी-अपनी ' घीकी हाँड़ी लेकर जाते थे । कमेटीने निश्चय किया कि घी विद्यार्थियोके पास न रहे । सब घी दालमे रँघते समय डाल दिया जाय और रूखी रोटी परसी जाये । इसपर भी विद्रोह बढ गया। उद्दण्डताके कारण कुछ विद्यार्थियोको विद्यालयसे पृथक् करना पड़ा। मामला फिर कमेटीके सामने पेश हुआ। मैने इसपर प्रवन्ध-समितिसे त्यागपत्र दे दिया। जैन जातिके विद्यार्थियोने महाविद्यालयको गिराकर अनाथालय-सा वना दिया है, और इसी कारण कोई प्रतिष्ठित सज्जन अपने वालक इस जैनसस्थामें पठनार्थ नही भेजते।। १७ नवम्बर १९२२ को लखनऊसे दिल्ली पहुँचा । पचायती मन्दिरको पञ्चकल्याणक-प्रतिष्ठाके अवसरपर महासभाको निमन्त्रित करनेका प्रस्ताव मैने जोरसे भाषण देकर स्वीकार करा लिया, किन्तु मुख्य नेता, अधिकारप्राप्त पुरुषोका सहयोग नहीं मिला। महासभाके अधिवेशनमें तुरन्त सदस्यपत्र भरवाकर सदस्य बना लिये गये । वैरिस्टर चम्पतरायजीके जैनगजट (हिन्दी) के सम्पादक होनेके प्रस्तावका समर्थन करनेको लाला देवीसहाय फीरोजपुर खडे हुए। उनको एक महाशयने पकडकर विठा दिया और अनियमित अनिधिकार बहुमतसे एक पण्डितपेशा महाशयको सम्पादक बनानेका प्रस्ताव पास करा लिया। ऐसी खुली धाँधली देखकर कितने ही सदस्य उठ खडे हुए और दूसरे मण्डपमें एकत्र होकर भारतवर्षीय दि० जैन परिषद्को स्थापना की। प्रथम अध्यक्ष रायवहादुर सेठ माणिकवन्दजी सेठी झालरापाटनवाले निर्वाचित हुए। ७० सीतलप्रसादजीने सदस्य-सूचीपर प्रथम हस्ताक्षर किये। तीर्थक्षेत्र-कमेटीकी स्थापना जैनसमाजके वास्तविक दानवीर सेठ माणिकचन्दजीने की थी। वे स्वय उसके महामन्त्री थे। रोजाना कार्यालयमें आकर ४-५ घण्टे कार्य करते थे।

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