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जैन-जागरणके अग्रदूत
असाधारण आकारके धन-पिण्डमें अपना और अपने हृदय-मन्दिरकी दिव्य तपस्वी-मूर्तियोका उवलता हुआ रक्त दिया है, जैनो और भारतीयोके उग्न तपोधन देवोका प्रत्येक जीवन-मार्गमें स्वपर-भेद जनित वासना
ओको भस्मीभूत करके सार्वहितके लक्षसे प्रगतिका क्रियात्मक सचालन किया और कराया है। भारतवर्षीय जनशिक्षा-प्रचारक समितिका सगठन स्वर्गीय दयाचन्द्र गोयलीय और उनके वर्गके अन्य सत्यहृदयी कार्यकर्ता-मोती,' प्रताप', मदन', प्रकाश की जैसी राजनैतिक
१-स्वर्गीय वीर-शहीद मोतीचन्द सेठीजीके शिष्य थे। इन्हें श्राराके महन्तको वध करनेके अभियोगमें (सन् १९१३) में प्राण-दण्ड मिला था। गिरफ्तारीसे पूर्व पकड़े जानेकी कोई सम्भावना नहीं थी। यदि शिवनारायण द्विवेदी पुलिसकी तलाशी लेनेपर स्वयं ही न बहकता तो पुलिसको लाख सर पटकने पर भी सुराग नहीं मिलता। पकडे जानेसे पूर्व सेठोजी अपने प्रिय शिष्योंके साथ रोजानाकी तरह घूमने निकले थे कि मोतीचन्दने प्रश्न किया "यदि जैनोंको प्राणदण्ड मिले तो वे मृत्युका
आलिङ्गन किस प्रकार करें ?" बालकके मुंहसे ऐसा वीरोचित, किन्तु असामयिक प्रश्न सुनकर पहले तो सेठीजी चौंके, फिर एक साधारण प्रश्न समझकर उत्तर दे दिया। प्रश्नोत्तरके एक घटे बाद ही पुलिसने घेरा डालकर गिरफ्तार कर लिया, तब सेठीजी, उनकी मृत्युसे वीरोचित जूझनेकी तैयारीका अभिप्राय समझे। ये मोतीचन्द महाराष्ट्र प्रान्तके थे। इनकी स्मृतिस्वरूप सेठीजोने अपनी एक कन्या महाराष्ट्र प्रान्त-जैसे सुदूर देशमें व्याही थी। सेठीजीके इन अमर शहीद शिष्योके सम्वन्धमें प्रसिद्ध विप्लववादी श्री शचीन्द्रनाथ सान्यालने "वन्दी जीवन” द्वितीय' भाग पृ० १३७में लिखा है-"जैनधर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्यकी ख़ातिर देशके मङ्गलके लिए सशस्त्र विप्लवका मार्ग पकडा था। महन्तके खनके अपराधमें वे भी जब फाँसीकी कोठरी में कैद थे, तब उन्होंने भी