Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 116
________________ श्री सुमेरचन्द एडवोकेट ४३३ साहसको नही खोया । ऐन मौकेपर जिन सहयोगियोने आपको धोका दिया, कभी उनके प्रति आपके हृदयमें अनादरने घर नही किया । उल्टा लोगोंके आगे उनकी बेबसीकी वकालत की और उनके अन्य उत्तम गुणोंकी प्रशंसा करके जनताकी दृष्टिमें आदरणीय ही बनाये रक्खा । बा० सुमेरचन्दजीको अपनी वकालतसे साँस लेनेको फुरसत न थी । मगर परिषद् के लिए कितना समय देते थे, यह परिषद्वाले जानते हैं । महमानवाज ऐसे कि घरपर कैसा ही साधारण-से- साधारण महमान आये तो उनके पाँवमें अपनी आँखें बिछा देते थे । अभिमान तो नामको भी न था। शायद ही उन्होंने अपनी उम्नमें किसी नौकरको अपशब्द कहे हों । " देहली अधिवेशन में सभापति पदसे आपने कहा था- "सज्जनो, आज हम अपने में एक ऐसे सज्जनको नही देख रहे है जिसने अपनी सेवाओसे हमारी समाजको सदैव के लिए ऋणी बना दिया है । इनका शुभ नाम श्रीमान, रायबहादुर साहब जुगमन्दरदासजी हैं। आज हमारे बीच आप नही है, अब तो स्वर्गीय रत्न बन चुके है। आपकी सेवाओका पूर्ण विवरण तो लिखा जाना कठिन है । में तो आपकी थोड़ी-सी भी कृतियोका उल्लेख नही कर सका हूँ । हाँ ! इतना तो अवश्य कह सकता हूँ कि आप जैनसमाजके एक असाधारण महापुरुष थे । आपके वियोगसे जैनसमाजकी जो क्षति हुई है, निकट भविष्यमें उसकी पूर्ति नही दीखती । आपकी उदार सेवाओके लिए समाजका मस्तक आपके आगे झुका हुआ है । क्या में यह आशा कर सकता हूँ कि उदार जैन समाज आपके उचित स्मारककी स्थापनापर विचार करेगी ।" में आज इतने दिनके बाद उक्त शब्दोकी कीमत समझ पाया हूँ । यह उनका संकेत किसी अनन्तकी ओर था । खंडवाकी स्वागतकारिणीने जुगमन्दर-सभा-स्थान बनाकर आपके शब्दोको मान दिया था । क्या मैं आशा करूं कि बा० सुमेरचन्दजीकी पवित्र स्मृतिमे जैन समाज कोई अलग स्मारकका आयोजन करेगी । बा० सुमेरचन्दजी कहनेको अव २८

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