Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 125
________________ जैन - जागरणके अग्रदूत और भगवानदीनजीको त्याग-पत्र देना पडा और एक-एक करके गेन्दनलालजी, व्र० सीतलप्रसादजी, भाई मोतीलालजी, जौहरी जगन्नाथजी, बाबू सूरजभानजी आदि सभी आश्रमसे हट गये । नामको वह आश्रम अव भी मथुरानगरके चौरासी स्थानपर चल रहा है, किन्तु जो बात सोची थी, वह असम्भव हो गई । ४४२ दृष्टान्तरूप इतना लिखना अनुचित न होगा कि जब मैने त्यागपत्र दिया, उस समय ६० ब्रह्मचारी आश्रममें थे । शिक्षणका प्रभाव उनपर इतना था कि एक दिन सबके साथ में भोजन करने बैठा । सव ब्रह्मचारी साधारणतया भोजन कर चुके, मुझसे खाया ही नही गया । तव भगवानदीनजीने नमक दाल-श - शाकमें डाल दिया । फिर तो मैने भी भोजन कर लिया। भगवानदीनजीने बतलाया कि बालकोके मनमें यह दृढ श्रद्धा है कि भोजन स्वादके लिए नही, बल्कि स्वास्थ्यके लिए किया जाता है, जो भोजन अघिठाताजी देंगे, अवश्य स्वास्थ्यप्रद होगा । समस्त विद्यार्थी अपने जूठे बर्तन स्वय मांजते, स्वय कुएँसे पानी भरते, अपने वस्त्र स्वय धोते थे, और आज्ञाकारी इतने थे कि भगवानदीनजीका इशारा पाते ही एक लडका कुऍमें कूद गया, रस्सेसे उसे तुरन्त बाहर निकाला गया । एक वालक उस वियावान जगलमें ५-६ मीलकी दूरीसे आदेश मिलनेपर अकेला ही आश्रम पहुँच गया । बालक निर्भीक, विनयी और आज्ञाकारी थे । १९१० ई० में लखनऊ में मकान बनवाया । अजिताश्रम उसका नाम रखा गया । १९११ में गृहप्रवेशके अवसरपर भारत - जैन - महामण्डलकी प्रवन्धकारिणीका अधिवेशन हुआ । फिर १९१६ में महामण्डल और जीवदया सभाके विशाल सम्मिलित अधिवेशन हुए । अजिताश्रमका सभामण्डप सजावट में लखनऊभरमें सर्वोत्तम था । सभाध्यक्ष प्रख्यात पत्रसम्पादक मि० बी० जी० होनमैन थे। वक्ताओ में महात्मा गाधी भी थे | अधिवेशनमें उपस्थिति इतनी अधिक थी कि छतो और वृक्षोपर भी लोग चढे हुए थे । सामनेकी सडक रुक गई थी, खडे रहने को भी कही

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