Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 123
________________ ४४० जैन-जागरण के अग्रदूत साथ हर रोज दर्शन करने जाता था । सन् १८९३ मे बी० ए० की परीक्षामे भी मै फर्स्ट आया । मुझे afर्नंग कॉलेज गोल्ड मेडल मिला। मेरा नाम १८६३ की स्नातकसूची में स्वर्णाक्षरोमे कॉलेज हालमें लिखा गया था । उन दिनो आई० सी० एस० की परीक्षा भारतमे नही होती थी । पिताजीके पास इतना धन नही था कि वे मुझे लन्दन भेज सकते। उनकी अनुमतिसे वम्बई गया और सेठ माणिकचन्दजीसे मिला, किन्तु छात्रवृत्ति प्राप्त न हो सकी । लाचार भारतमें ही रहकर १८६४ में एल् एल० वी० और १८६५ में एम० ए० को परीक्षा पास की। मुझे थियेटर देखनेका व्यसन था, किन्तु परीक्षाकी तैयारीमे न देखनेका दृढ सकल्प कर लिया था, और उसे अन्त तक निभाया । अप्रैल १८६५ में ५००रु० के स्टाम्पपर मैने हाईकोर्ट अलाहावादसे वकालत करनेकी अनुमति प्राप्त कर ली । लेकिन मुझे वहाँ एक भी मुकदमा नही मिला । कुछ दिनो बाद लखनऊ चला आया, और १०रु० किराये के मकान में रहने लगा। एक मुशी भी रख लिया । यहाँ मुझे काम मिलने लगा । और ३-४ वर्षके बाद कचहरीमें नाम फैलने लगा । १९०१ में मैने रायवरेलीकी मुन्सिफीका पद ग्रहण किया । १९०६ ई० में ६२ वर्षकी उम्र में मेरे घुटनेपर सिर रखे हुए पिताजीका प्राणान्त हो गया । रायबरेलीमें तीन माह मुन्सिफी करनेके वाद में लखनऊ वापिस आ गया, और प्रयत्न करनेपर में सरकारी वकील हो गया । १६१६ में १५ बरस तक सरकारी वकालत करते-करते में उकता गया । सरकारी वकीलका वेतन उस समय २५ रु० प्रतिदिन था। सरकारी वकालतके १६ वरसके समयमें मेरा सतत उद्देश्य यही रहा कि मैं अन्याय या अत्याचारका निमित्त कारण न हो जाऊँ । मैने कभी गवाहोको नही सिखाया, न ऐसी गवाहीपर जोर दिया जो मेरी समझमें झूठ थी। सरकारी वकीलका कर्तव्य है कि प्रजाके साथ न्यायपूर्वक व्यवहारमें सहायक हो । वह पुलिसका वकील नही है, जैसा लोग साधारणतया समझते

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