Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 115
________________ -४३२ जैन-जागरण के अग्रदूत में परिषद् के वारहवें अधिवेशनके सभापति होकर आये थे । वा० सुमेरचन्दजी जितने बड़े आदमी थे, उतनी ही ज्ञानका देहलीवालोने उनका स्वागत किया था । देव- दुर्लभ जुलूस निकाला था । देहलीकी जनता में परिषद्-विरोधियोंने भ्रम फैलाया हुआ था, किन्तु यह सब वा० सुमेरचन्दजी के व्यक्तित्वका प्रभाव था, जो देहली- जैसे स्थानकी धार्मिक जनता, परिषद्की अनुयायी हो गई, और परिषद्को वह अभूतपूर्वं सफलता प्राप्त हुई जो इससे पूर्व परिषद्को तथा अन्य जैन सभाओको नसीब नही हुई थी । खडवा अधिवेशनमे जब विषय निर्वाचन समिति में मन्दिर - प्रवेश प्रस्तावपर बहस करते हुए हम मनुष्यत्व खो बैठे थे, तव बा० सुमेरचन्दजी किस शानसे मुस्कराते हुए उठे, और किस कोगलसे प्रस्तावका सशोधन करके परिषद्को मरनेसे बचा लिया था । वह सब आज आँखोमें घूम रहा है । वा० सुमेरचन्दजीने कितनी आरजू-मिन्नत करके परिषद्के आगामी अधिवेशनका निमन्त्रण स्वीकार कराया था । उनकी आँखो में कौन-सा जादू था, उनकी वाणीमें ऐसी क्या शक्ति थी कि अन्य सब स्थानोके निमन्त्रण वापिस ले लिये गये, और देहली प्रान्तका - ही निमन्त्रण सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ 1 वावू सुमेरचन्दजी बातके धनी, समयके पाबन्द धर्मनिष्ठ पुरुष थे । जो बात कहते थे, तोलकर कहते थे । क्या मजाल, उनकी बात काटी जाय, मीटिंग में बैठे हुए सबकी बात बच्चोकी तरह चुपचाप सुनते, बच्चोकी तरह हँसते, और जब वह बोलते तो बहुत थोडा बोलते । मगर जो "बोलते वह सव सूत्ररूप, वा मायने । हम कहते - "यह बात आपने पहिले ही क्यो न कह दी, व्यर्थ हमें बकवादका मौका दिया ।" वह खिलखिलाकर हँस पडते और हम उनकी इस सरलताकी ओर नतमस्तक हो जाते । वा० सुमेरचन्दजी सहारनपुरके सबसे बड़े वकील थे । उन्हें लखनऊ, इलाहावाद, आगरा, कानपुर-जैसे नगरोमे वकालतके लिए जाना पडता था । उनके कानूनी ज्ञानका लोहा प्रतिद्वन्द्वी भी मानते थे । मैने कभी आपकी त्यौरियोपर बल पड़ते हुए नही देखा | आपत्तिके समयमें भी उन्होने

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