Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 99
________________ ३६६ जैन-जागरणके अग्रदूत देती है, चाहे उस समयमें और अब जीवोके परिणामो और लेश्याओमें जमीन-आस्मानका ही अन्तर क्यो न हो गया हो । ___ सतनामें परिषद्का अधिवेशन पहला मौका था, तब उल्लेखनीय जैनवीर-प्रमुख श्री ...........के द्वारा आपसे मेरी भेंट हुई थी। मै कई वर्षोके उपयुक्त मौनाग्रहनतके वाद उक्त अधिवेशनमें शरीक हुआ था। इधर-उधर गत-युक्तके सिंहावलोकनके पश्चात् मैं वहाँ इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि आपमें सत्य-हृदयता है और अपने सहधर्मी जन, वन्धुओके प्रति आपका वात्सल्य ऊपरको झिली नहीं है, किन्तु रगोरेगे में खौलता हुआ खून है, परन्तु तारीफ यह है कि ठोस काम करता है और बाहर नहीं छलकता।" ____इस तरह मुझे तो दृढ प्रतीत होता है कि आपके सामने यदि मै जनसमाजके आधुनिक जीवन-सत्त्वके सम्बन्धमें मेरी जिन्दगी भरकी सुलझाई हुई गुत्थियोको रख दूं तो आप उनको अमली लिवासमें जरूर रख सकेंगे। अपेक्षा--विचारसे यही निश्चयमें आया। वन्धुवर, __ आपने राष्ट्रिय राजनैतिक क्षेत्रके गुटोमें घुल-घुलकर काम किया है, उसकी रग-रगसे आप वाकिफ हो चुके है और तजरुवेसे आपको यह स्पष्ट हो चुका है कि हवाका रुख किदरको है । इसीसे परिणाम स्वरूप आपने निर्णय कर लिया कि जैनेतरोकी ज्ञात व अज्ञात भक्ष्य-भक्षक प्रतिद्वन्द्विताके मुकाविलेमें सदियोके मारे हुए जैनियोके रग-पटठोमें जीवनसग्राम और मूल संस्कृतिको रक्षाकी शक्ति पैदा हो सकती है तो केवल तथा आपदानोके अनुभव प्राप्त करके युवा हुए। सेठीजी ५-६ वर्षको नजरबन्दीसे छूटकर आये ही थे कि उनकी प्रवास-अवस्थामें ही अकस्मात् मृत्यु हो गई। सेठीजीको इससे बहुत श्राघात पहुंचा। इन्ही प्रकाशकी स्मृति-स्वरूप इनके वाद जन्म लेने वाले पुत्र का नाम भी उन्होंने प्रकाश ही रक्खा ।

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