Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 95
________________ २८४ जैन - जागरणके श्रग्रदूत है । कौन उससे लडकर उद्योग करे, नया झगडा मोल ले । फिर हम समाज - जीवी है । जव सारा समाज एक परम्परामें चल रहा है, तो वह अकेला कौन है, जो सबसे पहिले विद्रोहका झण्डा खडा करे, नक्कू बने ? अच्छा, कोई हिम्मत करे, नक्कू बननेको भी तैयार हो चले, तो उसके भीतर एक हडकम्प उठ आता है -- लोग क्या कहेंगे? और ये लोग ? जिन्हें सहीको गलत कहनेकी मास्टरी हासिल है और जो नारदके खानदानी 'एव मन्थराके भाई-बहन है, ऐसा ववण्डर खडा करेंगे, सत्यके विरुद्ध ऐसा मोर्चा वांगे कि यही प्रलयका नजारा दिखाई देगा । चलो, इस मोर्चेसे भी लडेंगे । असत्यका मोर्चा, सत्यके सिपाही को लडना ही चाहिए, पर चारो ओरके ये समझदार साथी जो घेर बैठे"हाँ हाँ, वात तुम्हारी ही ठीक है, पर तुम्ही क्यो अगुवा बनते हो । अकेला 'चना भाडको नही फोड सकता । इन सब बुराइयोको तो समय ही ठीक करेगा । याद नही, रामूने सिर उठाया, बिरादरीके पचोने उसे कुचल दिया । फिर तुम्ही तो सारे समाजके ठेकेदार नही हो । वडोसे जो बात चली आ रही है, उसमें जरूर कुछ सार है । तुम्ही कुछ अक्ल के पुतले - नही हो - समाजमें और भी विद्वान् है । चलो अपना काम देखो, किस झगडे में पडे जी ।" 1 विचारका दीपक भीतर जल रहा है, धुंधला-सा, नन्हा-सा, टिमटिमाता । तेल उसमें कोई नही डालता, उसे बुझानेको हरेककी फूंक बेचैन है । दीपकमें गरमी है, वह जीवनके लिए संघर्ष करता है, उसकी लौ टिमटिमाती है, ठहर जाती है, पर अन्तमें निराशाका झोका आता है, वह त्रुझ जाता है । पता नही, हमारे समाजमें रोज तरुण- हृदयोमें विचारो के दीपक कितने जलते है और यो ही बुझ जाते है। काश, वे सब जलते रह पाते, तो आज हमारा समाज दीपमालिकाकी तरह जगमग जगमग दिखाई देता । सुना है, हाँ, देखा भी है, दीपक हवाके झोकेसे बुझ जाता है, हवा नही चाहती कि प्रदीप जले, दोनोमें शत्रुता है, पर वनमें ज्वाला जलती

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