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पं० ऋषभदास अपने चाचा ला० बुलन्दराय वकीलके वकालतके इम्तिहानकी तैयारीके वास्ते रहता था। वे और उनके पिता रायसाहब मथुरादास इंजिनियर आर्यसमाजी थे। रामपुरके जैन उत्सवमें मेरे साथ वा० वुलन्दराय भी
गये थे, वहाँ उन्होने जैन पण्डितोके साथ ईश्वरके कर्ता-अकर्ता होनेकी • वहस उठाई। जव मैने देखा कि जैन पण्डितोके उत्तरसे उनकी पूरी तसल्ली - नही होती है, तब स्वय मुझे ही उनके सन्मुख होना पड़ा और वेधडक - तर्क-वितर्क करके उनको कायल कर दिया। इस समय तक मेरी और - ऋषभदासजीकी कुछ जान-पहचान नही थी। क्योकि इससे पहले मेरा रहना » परदेशमें ही होता रहा था। यह हमारी बहस ५० ऋषभदासजीने
वडे गौरसे सुनी, जिससे उनके हृदयमें मुझसे मित्रता करनेकी गहरी चाह - हो गई। सभा विसर्जन होनेपर जब सब अपने-अपने डेरेपर वापिस . जा रहे थे, पं० ऋषभदासजी भी हमारे साथ हो लिये और बाबू वुलन्दराय. से इस विषयमें कुछ तर्क-वितर्क करना चाहा । अत हम सब लोग रास्ते .. ही में एक जगह बैठ गये और ऋषभदासजीने नये-नये तर्क करके उनको . बहुत ही ज्यादा कायल कर दिया, जिससे मेरे मनमें भी उनसे मित्रता
करनेकी गहरी इच्छा हो गई। इस इच्छासे वे रात्रिको मेरे डेरेपर आये और हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई, जो अन्त तक रही । उनको
अक्सर सहारनपुर आना पड़ता था। जव-जब वे आते थे, मुझसे जरूर - मिलते थे और धार्मिक सिद्धान्तोपर घण्टो बातचीत होती रहती थी।
मेरे पितामहके भाई रायसाहव मथुरादास इजिनियरकी वहस , ईश्वरके सृष्टिकर्ता विषयपर बहुत दिनोसे प० सन्तलालजीसे लिखित
रूपसे चल रही थी। रायसाहव आर्यसमाजके बडे-बडे विद्वान् पण्डितोसे उत्तर लिखवाकर उनके पास भेजा करते थे। अन्तमें प० सन्तलालजीने जो उत्तर दिया, वह बहुत ही गौरवका था, जिसका उत्तर लिखनेको रायसाहबने पं० भीमसैनजीके पास भेजा जो आर्यसमाजमें सबसे मुख्य विद्वान् थे और स्वामी दयानन्दके वाद उनके स्थानमें अधिष्ठाता माने जाते थे। भीमसैनजीने अपने आर्यसमाजी विद्वान्के उस उत्तरको, जिसका प्रतिउत्तर