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पं० उमराव सिंह न्यायतीर्थं
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मैने 'गाधी-अली' संवादपर दृष्टि डाली तो सब जगह एक-सी ही 'वेबकूफी देखी । सपूर्णं सवादमें गाधीके साथ 'मौलाना' और गौकतअलीके साथ 'महात्मा' शब्दका प्रयोग देखकर मेरा 'टेम्परेचर' भड़क उठा और मुझे प्रेसके भूतोकी वेअकलीपर हँसी आ गई । आव देखा न ताव, कलम कुठार उठाकर 'मौलाना' और 'महात्मा' दोनोका शिरच्छेद कर डाला और नई रीतिसे गावके साथ महात्मा और शौकतअलीके साथ 'मौलाना' शब्द जोड डाला । इस कार्यमें एक घटेके लगभग लग गया । अब मैं प्रेसके भूतोकी बेवकूफी और अपनी बुद्धिमानीका सुसवाद कहने के लिए ब्रह्मचारीजीको निद्रा भग होनेकी प्रतीक्षा करने लगा । उनके उठते ही मैने प्रूफ उनके सामने रक्खा । अभी मैं कुछ कहने भी न पाया था कि ब्रह्मचारीजीके श्रीमुखसे मैने अपने लिए वे शब्द सुने, जो कुछ देर पहले अपने दिल ही दिलमें, मै प्रेसके भूतोको कह चुका था । ब्रह्मचारीजीकी इस 'नाशुत्री' पर मुझे वडा खेद हुआ, किन्तु जब मुझे मालूम हुआ कि 'प्रहसन' में हिन्दू-मुसलिम एकताका 'प्रहसन' किया गया है तो मेरे देवता कूंच कर गये, और मैं प्रेससे 'एक दो तीन' हो गया ।
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'अहिंसा परिषद्' और गिक्षासस्थाओके सचालनमें ब्रह्मचारीजी इतने तल्लीन हुए कि गारीरिक स्वास्थ्यकी ओरसे एकदम उदासीन हो गये । कभी-कभी बुखार आ जानेपर भी दैनिक कार्य करना नही छोडा । जव रोग वढ गया तो चिकित्साके लिए बनारससे बाहर चले गये । ज्वर ने जीर्ण ज्वरका रूप धारण कर लिया, खासी भी हो गई । यक्ष्माके लक्षण प्रकट होने लगे । फिर भी सामाजिक कार्यो में भाग लेना न छोडा । फरवरी १९२३ में देहलीमें जो पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ था, व्यावर विद्यालयके छात्रो के साथ उसमें वे सम्मिलित हुए थे और सेठके कूंचेकी धर्मशाला में ठहरे थे । मैं अपने सहयोगियोके साथ उनसे मिलने गया । उस समय उन्हें ज्वर चढ रहा था और खाँसी भी परेशान कर रही थी । हम लोगोकी आहट पाते ही उठकर बैठ गये और उसी स्वाभाविक मुस्कान
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