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जैन-जागरणके अग्रदूत सकता हूँ कि उनके जीवनका कोई भी क्षण जैनसमाजकी सेवाके सिवा उनके निजी कार्यमे नही लगा।
जब वे "जैनहितैषी" निकाला करते थे, तव निर्णयसागर प्रेससे उनका विशेष सम्बन्ध था। निर्णयसागर प्रेसके मालिकोने उन्हीकी प्रेरणासे 'प्रमेयकमलमार्तण्ड', 'अष्टसहस्री', 'यशस्तिलकचम्पू' आदि अनेक जैननथ प्रकाशित किये थे, जिनका कि उस समय जैनसमाज द्वारा प्रकाशन होना असभव-सा था । बंगालमें जिनवाणी-प्रचार
बनारससे 'भारतीय जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्था' को कलकत्ता ले गये थे कि वगाली विद्वानोसे मिल-जुलकर उन्हे भगवान् महावीरकी वाणीकी महत्ता सुझाये।
मुझे वे पचासोबार पचासो बगाली विद्वान्, सपादक और लेखकोंके 'पास ले गये थे। उन्हे वे संस्कृत प्राकृतके जैन ग्रथ भेट किया करते थे,
और इस तरह जिनवाणीकी ओर उनका मनोयोग खीचा करते थे। बंगला मासिकपत्रोमे सर्वश्री महामहोपाध्याय विधुशेखर भट्टाचार्य, प० हरिहर शास्त्री, वा० शरच्चन्द्र घोषाल, वा० हरिसत्य भट्टाचार्य, प० चिन्ताहरण चक्रवर्ती प्रमुख अनेक विद्वानोको उन्होने जैन-साहित्यकी ओर आकषित किया थो। वे वगीय साहित्य-परिषद्के सभासद् रहे और वहाँ उन्होने अनेक वगाली लेखकोकी जनसाहित्यकी ओर रुचि वढाई । अन्तमें यह सिलसिला इतना बढता गया कि उनके आसपास वगाली विद्वानोका एक समूह-सा जम गया। ___इसी समय उन्होने 'वगीय अहिंसा परिषद्' की स्थापना की और उसकी तरफसे 'जिनवाणी' नामक एक बँगला मासिकपत्रिका प्रकाशित की गई । अहिंसा-परिषद्का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो रहा था, जिसे स्व० रसिकमोहन विद्याभूषण आदि अनेक प्रभावशाली बगाली विद्वान् लेखक और वक्ताओका सहयोग प्राप्त था ।